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असंगघोष : दलित कविता का तेजस्वी स्वर –जगदीश जटिया

राजेंद्र चंद्रकांत राय
जयलोक
वह सत्तर का दशक था, जब एकाएक हम लोगों ने मराठी भाषा के विद्रोही दलित कवि नामदेव ढसाल की मशाल की तरह समाज की विरूपताओं को जलाकर खाक कर देने वाली कविताओं के अंधड़ को महसूस किया था। फिर दलित कवियों की एक पूरी नई पीढ़ी ही सामने आई, और उसने हमारे समाज के ही उस वर्ग की पीड़ाओं और दशाओं का ऐसा चित्र सामने रखा, जो अविश्वसनीय होते हुए भी, यथार्थ के खुरदुरेपन को उजागर करता था। मराठी साहित्य और समाज में वैसे भी दलित चेतना का अपना इतिहास है। वर्ण के साथ सदियों से जैसा व्यवहार होता रहा है और अब भी उससे निजात नहीं मिल पाई है, उसके बरखिलाफ एक विद्रोही स्वर दलित कविता के जरिए प्रकट हुआ और बौद्धिकों की जमात को आईना दिखाने और अपनी सोच का पुनरावलोकन करने के लिए उसने उद्वेलित किया है। असंगघोष उसी चेतना को पूरी प्रखरता के साथ अपनी कविता में अभिव्यक्त करने वाले समकालीन कवि हैं। उनका मूल नाम जगदीश जटिया है और वे आईएएस अधिकारी के तौर पर अपनी सेवाएं देकर अब पूरी तरह से साहित्य और दलित चेतना के प्रसार कार्यों में जुटे हुए हैं। मेरी उनसे पहली और बेहद दिलचस्प मुलाकात नब्बे के दशक में हुई थी और वे तब जबलपुर में एसडीएम के पद पर थे। मैंने एक पत्रिका का प्रकाशन करने के लिए कलेक्टर के माध्यम से आवेदन किया था। समाचार पत्रों के अखिल भारतीय रजिस्ट्रार के पास से पत्रिका का शीर्षक तय करने वाले पत्र की प्रति मुझे मिल गई थी। मैं उसे लेकर संबंधित बाबू के पास गया था, परंतु वह कोई साधारण बाबू न था। समाचार पत्र और पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाले पत्रकारों से भी रिश्वत वसूलने में उसे महारत हासिल थी। उसने मुझे तरह-तरह के बहानों से कई बार भटकाया था। मैं उसका मंतव्य समझ रहा था, किंतु रिश्वत देने को तैयार न था। मैंने इसका जिक्र ज्ञानरंजन जी से किया, तो उन्होंने कहा कि तुम जटिया जी से जाकर मिलो। मैं उनसे तहसील कार्यालय में उनकी कोर्ट में मिला। वे एक सौम्य और सहज अधिकारी नजर आए। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। उन्होंने मुझे आदरपूर्वक बैठाया। गौर से मेरी समस्या को सुना। सुनने के बाद बोले, मेरे साथ चलिए। उनकी जीप से हम दोनों कलेक्ट्रेट गए। मेरी समस्या से संबंधित एसडीएम की कोर्ट में पहुँचे। उन्होंने दो और कुर्सियाँ मंगवाईं और वहीं अपने बाजू में हमें भी बैठा लिया। उन्होंने उन दूसरे एसडीएम को मेरी समस्या बताई। एसडीएम ने अपने एक सहयोगी कर्मचारी को उस बाबू के पास भेजा। पता चला वे छुट्टी पर हैं। तब संबंधित फाइल ले आने को कहा गया। इस बार उन्होंने लौटकर बताया कि बाबू आलमारी की चाबी अपने साथ ले गए हैं। एसडीएम ने कहा, ताला तोड़ कर फाइल ले आओ। कुछ देर बाद फाइल ले आई गई। आवश्यक कार्यवाही करने के बाद मुझे मेरा कागज सौंप दिया गया था। मैं हतप्रभ था। दोनों तरह से। एक बाबू कैसे अपनी मनमानी कर सकता था और एक एसडीएम आपसे सहमत हो, तो कैसे ताला तुड़वाकर भी आपका काम कर सकता था। यह सब असंगघोष जी यानि जगदीश जटिया जी की शख्सियत का ही प्रभाव था, क्योंकि मैं तो एक साधारण और अजनवी आदमी ही था। दूसरी भेंट उनसे तब हुई थी, जब वे मंडला के कलेक्टर थे। वह साल 2019 रहा होगा। लोकसभा के आम चुनाव हो रहे थे। भारतीय चुनाव आयोग के मंडला लोकसभा क्षेत्र के लिए पर्यवेक्षक बन कर टेलीकॉम रेग्यूलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया के प्रमुख सलाहकार कौशल किशोर जी जबलपुर आए हुए थे और जबलपुर के रेल्वे महाप्रबंधक डॉ मनोज कुमार सिंह के निवास पर ठहरे थे। सिंह साहब की पत्नी दिल्ली के हंसराज कॉलेज में इतिहास विभाग की प्रोफेसर थीं और उनके कॉलेज की लड़कियाँ अपनी अध्ययन-यात्रा पर जबलपुर आने वाली थीं। कवि मित्र श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा को उनका गाइड बन कर जबलपुर की ऐतिहासिक जगहों का भ्रमण कराना था और उनकी ऐतिहासिकता भी बतानी थी। पर उन्हें अचानक ही अपने गाँव जाना पड़ रहा था , जो कि उत्तर प्रदेश में है। उन्होंने अपने स्थानापन्न के तौर पर मेरा नाम सिंह साहब को सुझाया और वह जिम्मेदारी मुझ पर आ गई थी। उस शाम को डॉ सिंह के सरकारी निवास पर मेरी मुलाकात कौशल किशोर जी से हुई। वे जेएनयू के पास आउट थे, इस तथ्य ने उनके प्रति मेरी दिलचस्पी को बढ़ा दिया था। हम मिले। बातें हुईं। वे साहित्य-प्रेमी और इतिहास के मर्मज्ञ निकले। वे बाबा नागार्जुन और उनके परिवार से भी खूब परिचित थे। हिंदी साहित्य पर गहरी पैठ थी। कहानियों पर चर्चा हुई। कर्नल स्लीमन पर मेरे काम के बारे में वे मुझसे जानकारियाँ लेते रहे। कोई घंटे भर की बातचीत ने हमें दोस्त बना दिया था। वे मुझे भाए और मैं उन्हें भा गया। उन्होंने कहा कि कल मैं उनके साथ मंडला चला चलूँ। चार दिनों की संगत रहेगी। मैं असमंजस में था। गोलमोल जवाब दिया और न चल पाने के बारे में इशारा भी कर दिया। अगले दिन वे मंडला चले गए। मैं गाइड की भूमिका में रहा। तीसरे दिन उन्होंने फोन पर कहा कि वे गाड़ी भेज रहे हैं, मैं मंडला चला आऊँ। इस बार न कर पाना मुश्किल हुआ। मैं मंडला चला गया। शाम को पहुँचा और रेस्ट हाउस में उनकी बगल में ठहरा। बातों का अटूट सिलसिला चला। अगले दिन मंडला कलेकटर के साथ मीटिंग थी। मैंने कौशल किशोर जी को बता दिया था, कि वे कवि हैं। इस जानकारी ने कौशल किशोर जी की रुचि और बढ़ा दी थी। रात के भोजन पर हम दोनों और मंडला के पुलिस अधीक्षक भी जगदीश जटिया असंगघोष के आवास पर आमंत्रित थे। उद्देश्य था, असंगघोष जी की कविताएं सुनना। सहज संकोच से असंगघोष जी ने उसे टालने की कोशिश की और एकाएक बातचीत इतिहास विषय पर चली गई।एस पी साहब भी इतिहास प्रेमी थे और परिहारों के इतिहास पर उनकी गहरी जानकारियाँ थीं। आधी रात तक अतिहास का घमासान चलता रहा और बहुत सार्थक बहसें हुईं। इस तरह जगदीश जटिया असंगघोष को और करीब से तथा उनके व्यकित्त्व के दीगर आयामों को जानने-समझने का मौका मिला। फिर बार-बार मिले हम। मंडला कलेकटर रहते हुए उन्होंने विश्व-विख्यात चित्रकार सैयद हैदर रजा के नाम से एक कला भवन का निर्माण कराया है। रजा का जन्म मंडला के ककैया गाँव में हुआ था और मृत्यु पश्चात् उन्हें मंडला में ही दफनाया गया है। जगदीश जटिया असंगघोष का जन्म 1962 को मध्य प्रदेश के जावद में एक निर्धन किंतु मेहनतकश दलित परिवार में हुआ है। उनके पिता जूते बनाने का पुश्तैनी हुनर जानते थे और वही उनकी आजीविका का साधन था। जगदीश जटिया असंगघोष को पढ़ाई करनी थी और उसके साथ अपने पिता का हाथ भी बंटाना था, लिहाजा उन्होंने भी जूते बनाने का काम किया है। वे मेधावी और दृष्टि संपन्न व्यक्ति हैं। उन्होंने भीषण विपदाओं का सामना करते हुए अपनी शिक्षा पूरी की। डॉक्टरेट हासिल की। बैंक में नौकरी करते हुए प्रशासनिक सेवा में आए। बहुत से प्रशासनिक पदों से होते हुए अब सेवा निवृत्त हैं। देशाटन करते रहते हैं और कविता की दलित चेतना को उन्होंने नई धार देने का काम किया है।आरंभ में उनका जुड़ाव मार्क्सवादी विचार आंदोलन से था पर बाद में उन्हें आंबेडकर के विचारों और कार्यों ने ज्यादा प्रभावित किया और वे पूरी तरह से आंबेडकरवादी विचार आंदोलन के साथ हो गए। अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता के कारण वे अब हिंदी दलित कविता के प्रमुख कवियों में से एक हो चुके है।उनके आठ से भी ज्यादा कविता संकलन प्रकाशित हो चुके हैं- हम गवाही देंगे, मैं दूँगा माकूल जवाब, समय को इतिहास लिखने दो, हम ही हटाएंगे कोहरा, ईश्वर की मौत, अब मैं साँस ले रहा हूँ, बंजर धरती के बीज, हत्यारे फिर आएँगे, कौन जाता है वहाँ, सवाल तो होंगे ही, समकाल की आवाज (कविता संचयन) और तुम देखना काल (कविता संचयन)। उनकी रचनात्मकता को अनेक सम्मानों से नवाजा गया है, मध्य प्रदेश दलित साहित्य अकादमी, उज्जैन द्वारा पुरस्कृत (2002), प्रथम सृजनगाथा सम्मान-2013, गुरू घासीदास सम्मान, भगवानदास हिन्दी साहित्य सम्मान 2017, स्व.केशव पाण्डेय स्मृति कविता सम्मान 2019 और प्रथम मंतव्य सम्मान 2019।
उनकी एक कविता है- दरख़्तों के पार/सडक़ किनारे/मरी पड़ी थी/गाय/जिसकी खाल उतारकर/लौट रहे थे/टेम्पो में/चमड़ा धरे/कुछ कर्मशील लोग/धर्मोन्माद से भरी/चिल्लाती भीड़ ने/उन्हें रास्ते में/रोक लिया/कुछ चीखे/और चिल्लाये भी/इन चमारों ने/गाय मार दी है/जिंदा चीरकर/चमड़ा उतार लिया है/धर्मोन्मादियों द्वारा/जैसे/यह सब पूर्वनियोजित हो/भीड़ एकजुट हो/मार डालती है/इन दलितों को/ठीक दशहरे के दिन/रावण वधोत्सव मनाती है/भीड़/पुलिस के सामने/इस तरह/हथियारों की पूजा होती है/खून सने उन्माद के साथ/विजयादशमी को/इस बार/राम के नहीं/ भक्तों के हाथों/एक और शंबूक-वध होता है।जगदीश जटिया असंगघोष की कविताओं में शिल्प की बजाय कहन पर खास जोर होता है। अपनी सपाटबयानी के बावजूद कविता जिन स्थितियों, तथ्यों और समय के भोथरे यथार्थ को संप्रेषित करना चाहती है, उसमें वह पूरी तरह सफल रहती है। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था पर पूरी जिम्मेदारी के साथ प्रहार करते हैं। उनके कविता संग्रहों के शीर्षकों की अपनी प्रतिध्वनि है। वे कवि के निश्चय और दृढ़ता को व्यंजित करते हैं। वे अपनी कविता में जितने मुखर और साहसी हैं, उतने ही अपने जीवन में भी हैं। महत्वपूर्ण प्रशासनिक पद पर रहते हुए भी उन्होंने सरकार की जरूरी आलोचना से अपने को अलहदा नहीं रखा था। वे पक्षी अवलोकक भी हैं और अपने कैमरे के साथ जंगलों में विचरण करते हुए पक्षी-संसार के अचीन्हे तथ्यों और सत्यों की खोज में लगे रहते हैं। वे तीसरा पक्ष नामक पत्रिका का संपादन भी करते हैं और उसमें उनके सहयोगी हैं एक और महत्वपूर्ण दलित कवि देवेश चौधरी। वे मितभाषी, यारों के यार और अपने प्रभामंडल की गिरफ्त से बाहर रहने वाले शख्स हैं। डूब कर काम करते हैं और अपने रास्ते से जौ भर भी न डिगने के लिए संकल्पित बने रहने वाले व्यक्ति हैं।

 

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