स्वामी सदानन्द सरस्वती
पश्चिमाम्नाय द्वारकाशारदापीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु शङ्कराचार्य द्वारका
भगवान् आद्यशङ्कराचार्य का अवतार ऐसे समय पर हुआ जब भारत वर्ष में वैदिक सनातनीय परम्परा का पालन करने वालो पर वज्रपात होने लगा था और अनाधिकारी वैदिक धर्म का उपदेश करने लगे थे। सारा धर्मप्राणराष्ट्र अनीश्वरवाद में दीक्षित हो गया था। सनातनधर्म अज्ञान-अंधकार की गुफाओं में समाहित होने लगा था। उस समय भारतीय सनातनवैदिकधर्म, हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए आद्यशङ्कराचार्य का अवतार हुआ। भगवान् के अवतार का उद्देश्य धर्म की रक्षा करना ही होता है। जिन वेद-शास्त्रों ने जीवों के कल्याण के लिए यज्ञ-यागादि का विधान कर कर्मबंधन से मुक्त होने का उपाय बताया एवं ज्ञानियों के लिए परमसिंधुसुधारूप परब्रह्म में समा जाने का उपदेश प्रदान किया। इस वैदिक परंपरा को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास किया जाने लगा, तब श्रीमद् आद्यशङ्कराचार्य का अवतार हुआ।
जब असुर वेदों का आश्रय लेकर मद्य-मांस आदि का उपयोग करने लगे थे, तब भगवान् विष्णु ने बुद्ध का अवतार लेकर यज्ञ की निन्दा आरम्भ की। असुरों के यह कहने पर की ‘यज्ञ तो वेद विहित होने के कारण निन्दनीय नहीं है’। तब बुद्ध ने कहा वेदा: अप्रमाणम् अर्थात् वेद प्रमाण नहीं है। वेदों की प्रमाणिकता का खंडन होते ही पुण्य-नदियों, मंदिरों, तीर्थो की उपेक्षा होने लगी। लोगों ने व्रत-उपासनादि करना छोड़ दिया। द्विजातियों (ब्राह्मणों) ने वेदाध्ययन आदि का परित्याग कर दिया। उपनयन-अग्निहोत्र आदि भी बंद हो गए। नारियाँ पातिव्रतधर्म और सतीत्व का परित्याग कर समूह के समूह भ्रमण करने लगीं। बौद्ध विहारों में अकर्मण्य लोगों का संघ निवास करने लगा। अहिंसा का ऐसा बोलबाला हुआ कि जहां युद्ध उचित था वहां धर्म और देश की रक्षा के लिए भी अहिंसा का राग अलापा जाने लगा और फलत: झुंड के झुंड विदेशी उत्पीडऩ भारत भूमि में आकर लूटपाट और हिंसा करने लगे। यही लोग बौद्ध धर्म के नाम पर सनातन धर्मियों का उत्पीडऩ भी करने लगे।
वैदिकधर्म के क्षीण होते ही विभिन्न एवं अनेक मत वालों का उदय हुआ। जिनमें कापालिक आदि भी सम्मिलित थे। जो तुच्छ सांसारिक प्रयोजनों की प्राप्ति की लालसा से बलि जैसे बीभत्स प्रयोग भी करते थे। सुरापान और मांसाहार को प्रोत्साहन मिलने लगा। जहां धर्म और ब्रह्म के संबंध में वेद एकमात्र प्रमाण माने जाते थे, वहीं कुछ स्वतंत्र आगमों का भी प्रणयन होने लगा। आधुनिकों के बाहुल्य से वेद विरोधी मतों का प्रचलन बढ़ा तो तीर्थयात्राएं बंद होने लगी और भारत की एकता अखंडता खतरे में पड़ गई। ऐसे में देवताओं की सभा हुई और सभी देवों ने महादेव से अनुरोध करते हुए कहा – हे देवाधिदेव ! भगवान् ने अनाधिकारीयों को यज्ञ से विरत करते हुए बुद्ध अवतार लिया था। अब तो उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अधिकारी लोग भी यज्ञों से विरत हो रहे हैं। इसका कारण यह है कि बुद्ध ने यज्ञ के कारणभूत वेदों को ही अप्रमाण कह दिया। उनके उपदेशों का आश्रय लेकर चार प्रकार के बौद्ध दर्शन खड़े हो गए हैं। जिनका नाम माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक और वैभाषिक है। वेदों के अप्रामाण्य स्थापना के फलस्वरूप वर्णाश्रमधर्म तिरोहित हो रहा है। ऐसे में हे प्रभु! धर्म की स्थापना के लिए आपका सक्रिय होना परम आवश्यक हो गया है। देवाधिदेव महादेव ने प्रार्थना स्वीकार की। केरल-कालटी में अवतार लेकर सनातन हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए चतुष्पीठ की स्थापना की। भारतभूमि भ्रमण करते हुए केदारनाथ से कैलासगमन किया। अवतीर्णश्च कालट्यां केदारेन्तर्हितश्च य: । चतुष्पीठप्रतिष्ठाता जयतात् शङ्करो गुरु: ।।
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