
जब हम अजर-अमर आत्मा को जान जाते हैं तो अभय और स्वतंत्र हो जाते हैं। शरीर का चिंतन दुर्बल बनाता है और आत्मा का चिंतन भयमुक्त करता है, साहस, शक्ति और आत्मविश्वास देता है। जो शरीर को तुच्छ मानता है वही बड़े कार्य कर सकता है, त्याग कर सकता है, किसी आदर्श के लिए अपने को उत्सर्ग कर सकता है।
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक
‘ गीता को जानें’ लेखमाला- (23)

भगवान् ने दार्शनिक भाषा में कहा था कि असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। संसार, उत्पन्न होता है, परिवर्तित होता है व नष्ट हो जाता है अत: असत् है। इसके विपरीत सदैव रहनेवाली आत्मा सत् है। परन्तु जो संसार प्रत्यक्ष अनुभव में आता है कैसे मानें कि उसकी सत्ता नहीं है वेदांत इसे समझाते हुए कहता है कि यदि रस्सी को भ्रम के कारण साँप समझ लिया जाए तो जब तक भ्रम रहेगा तब तक साँप सत्य लगेगा। जब वास्तविकता का ज्ञान होगा तो साँप गायब हो जाएगा और रस्सी प्रकट हो जाएगी। हम भ्रम के कारण ही संसार को अस्तित्ववान् व सत् समझते हैं। ऋषियों ने ध्यान में अपरिवर्तनशील सत् का अनुभव किया और कहा कि अज्ञान के कारण उत्पन्न भ्रम के कारण सत् के ऊपर असत् संसार अस्तित्ववान् प्रतीत होता है।
अर्जुन अपने स्वजनों की मृत्यु की आशंका से विकल है। भगवान् उसे समझा रहे हैं कि मृत्यु तो मात्र शरीर का नाश है। शरीर तो असत् है यह तो निरंतर बदलता है और अंतत: नाश होना ही इसकी प्रकृति है। पर इस शरीर के पीछे जो आत्मतत्त्व है वह सत् है, वह कभी नष्ट नहीं होता। वह अनादि है अनन्त है। भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन इस शरीर के पीछे स्थित आत्मा को देखे। कल्याण या श्रेय के मार्ग पर चलना तभी संभव है जब मनुष्य शरीर, इन्द्रिय और मन में न रहते हुए आत्मा में आत्मा के रूप में निवास करे और इस प्रकार संसार के द्वंद्वों में सम रहते हुए अपने कर्तव्य कर्म करे। हमें छोटे से जीवन में असत् में ही नहीं उलझा रहना है बल्कि इसके पीछे की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए साधना करना है। प्रियजनों के शरीर नाश की आशंक से व्याकुल होना और अपने कल्याण की आकांक्षा करना दो परस्पर विपरीत बातें हैं। यदि श्रेय चाहते हैं तो हमें सुख-दु:ख में समत्वभाव रखने का अभ्यास करना होगा।
अब भगवान् सत् तत्त्व का स्वरूप बताते हैं। वह कहते हैं ‘अविनाशी तो तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण दृश्य जगत् व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं (गीता 2.17)’। सत्, जगत् को फैलाता है और उसमें व्याप्त हो जाता है। यह व्याप्ति दूध में शक्कर की तरह नहीं है क्योंकि दूध व शक्कर दोनों ही विजातीय पदार्थ हैं। यह व्याप्ति बर्फ में जल की तरह है। जल ही बर्फ बनता है। बर्फ का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और यह अंत में जल में लय हो जाती है। ऐसे ही संसार का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, यह परमात्मा का ही स्वरूप है और अंत में परमात्मा में ही लय हो जाता है। जैसे बादल सूर्य को ढक़ लेता है तो बादल के पीछे भी सूर्य चमकता रहता है पर वह दिखाई नहीं देता। बादल हटते ही सूर्य दिखने लगता है। इसी तरह संसार का अस्थाई प्रदर्शन ही असत् है जिसने अपरिवर्तनशील वास्तविकता ‘सत्’ को ढक दिया है। ज्ञान होने पर असत् का पर्दा हट जाता है और सत् प्रकट हो जाता है। इस सत् को जानने की क्षमता ईश्वर ने केवल मानव शरीर में दी है। अब भगवान् जीवात्मा और शरीर के माध्यम से प्रकृति और पुरुष की वास्तविकता बताते हैं। वह कहते हैं – ‘इस चिरस्थाई, अविनाशी और अमापनीय जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं । इसलिए हे भारत ! तू युद्ध कर (गीता 2.18)’। शरीर नाशवान् है । वह पैदा होता है, निरंतर परिवर्तित होता है और अंत में नष्ट हो जाता है। बीच में कुछ समय के लिए यह शरीर ‘भासता’ है या ‘प्रतीत होता’ है। इस शरीर का आधार चेतन तत्त्व है, जिसे आत्मा कहते हैं जो सत् है। शरीर के विनाश के बाद वही सत्ता यथावत् बनी रहती है। जैसे एक ही सूर्य जल से भरे अनेक घड़ों में एक साथ प्रतिबिम्बित होता है उसी तरह एक ही परमात्मा विभिन्न शरीरों में प्रतिबिम्बित होता है। शरीर में बना परमात्मा का अंश ‘प्रतिबिम्ब’ ही आत्मा कहा जाता है। घड़ा टूट जाए तो सूर्य का प्रतिबिम्ब बनना बंद हो जाएगा परंतु सूर्य यथावत् रहेगा। इसी प्रकार शरीर की मृत्यु हो जाने पर, उसे चेतना देने वाला सत् तत्त्व ‘आत्मा’ यथावत् रहती है।
यहाँ भगवान् ने आत्मा के तीन विशेषण दिये हैं – सदैव अस्तित्व में है (नित्य), नाश रहित और जिसकी माप-तौल न की जा सके (अमापनीय)। आत्मा तीनों कालों में है – सदैव से है और सदैव रहेगी। इसका विनाश कोई नहीं कर सकता। हमारी इन्द्रियाँ पंचभूतों से बने पदार्थों का ही अनुभव कर सकती हैं। आत्मा इससे परे है, वह संसार का हिस्सा नहीं है। अत: इन्द्रियों से उसका माप-तौल नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि हम संसार (असत्) का ज्ञान इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आदि के द्वारा करते हैं। यह सभी जड़ हैं जो आत्मा के प्रकाश में ही विषयों को ग्रहण कर सकते हैं। यदि शरीर में आत्म चैतन्य न हो तो इनकी कोई सत्ता नहीं है। जिस चैतन्य से शक्ति लेकर यह क्रियाशील हैं उसी चैतन्य को यह कैसे जान सकते हैं भगवान् बताना चाह रहे हैं कि अर्जुन तू शरीर के विनाश को सोचकर शोक क्यों कर रहा है। यह तो नाशवान् है। इनके पीछे की आत्मा जो सत् है वह तो अजर-अमर है। भगवान् का लक्ष्य सत् का बोध कराना है। सत् का बोध हो जाने से असत् की निवृत्ति स्वत: हो जाती है।
भगवान् की यह शिक्षा हम में साहस और उत्साह का संचार करती है। मैं शरीर हूँ यह भाव दुर्बलता को जन्म देता है और जब यह भाव आता है कि मैं नष्ट होने वाला शरीर नहीं हूँ, मैं तो परमात्मा का अंश अजर-अमर आत्मा हूँ तो भय की समाप्ति हो जाती है। शरीर को सत्य मानने से हम इन्द्रियों की सीमाओं में बँध जाते हैं। इसके आगे निकलते हैं तो परिवार, समाज, जाति, धर्म, देश आदि की सीमाओं में बँध जाते हैं।
सीमा का विस्तार होता है पर बंधन तो रहता ही है। पर जब हम अजर-अमर आत्मा को जान जाते हैं तो अभय और स्वतंत्र हो जाते हैं। शरीर का चिंतन दुर्बल बनाता है और आत्मा का चिंतन भयमुक्त करता है, साहस, शक्ति और आत्मविश्वास देता है। जो शरीर को तुच्छ मानता है वही बड़े कार्य कर सकता है, त्याग कर सकता है, किसी आदर्श के लिए अपने को उत्सर्ग कर सकता है। यहाँ भगवान् का उद्देश्य युद्ध कराना नहीं है बल्कि यह बताना है कि सत्-असत् का बोध होने, जगत् और परमात्मा की वास्तविकता का ज्ञान होने के बाद भी व्यक्ति को शास्त्रों में बताये गये कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिए। यहाँ अर्जुन का कर्तव्यकर्म धर्मयुद्ध करना है अत: उसे युद्ध करना चाहिए। अंतर आ जाता है कि वास्तविकता का बोध हो जाने पर वह दु:ख-सुख, हार-जीत में समभाव से रहता है, व्यथित नहीं होता। (क्रमश:)

Author: Jai Lok
