‘गीता को जानें’ लेखमाला- (1)
ओम प्रकाश श्रीवास्तव, आईएएस अधिकारी तथा धर्म और अध्यात्म के साधक
प्रिय आत्मन, गीता जयंती पर एक लेख लिख रहा था तो लगा कि 1000 शब्दों में अपनी बात नहीं कह सकता। तब पाँच लेखों की श्रृंख्ला लिखना प्रारंभ किया। इसी बीच विचार आया कि क्यों न इस श्रृंखला को निरंतर लिखा जाए जब तक गीता पूर्ण न हो जाए। विगत एक वर्ष से हर रविवार प्रात: जूम पर गीता पर चर्चा होती है और अभी तक 45 सत्र हो चुके हैं। परंतु उनमें गीता के हर श्लोक और शब्द की गहराई में जाकर व्याख्या होती है। इसके विपरीत इन लेखों को अत्यंत सरल और व्यवहारिक रखने का प्रयास किया गया। प्रत्येक लेख को छोटे-छोटे उप शीर्षकों में बाँटा जा रहा है।
प्रारंभिक परिचय – महाभारत के युद्ध के बीच खड़े अर्जुन को भगवान् कृष्ण का उपदेश श्रीमद्भगवद्गीता या गीता के रूप में प्रसिद्ध है। यह विश्व का सर्वमान्य ग्रंथ है । गीता-माहात्म्य में एक श्लोक है कि ‘सभी उपनिषद गायें हैं, अर्जुन बछड़ा है जिसके लिए श्रीकृष्ण ने गीत का अमृत रूपी दूध दुहा है जिसका विवेकी जन पान करते हैं।‘ गीता आकार में छोटा सा ग्रंथ है जो महाभारत के भीष्मपर्व का भाग है जिसमें 18 अध्याय और मात्र 700 श्लोक हैं परंतु उतना ही गहन, गंभीर सत्य इसमें उजागर किया गया है। इसे महर्षि वेदव्यास ने लिपिबद्ध किया। गीता के प्रत्येक अध्याय को एक-एक योग की संज्ञा दी गई है। यहाँ योग का अर्थ है – ‘जो ईश्वर की ओर ले जाने का कारण बने’। भगवान् ने अर्जुन को माध्यम बनाकर जीवन में आनेवाली सभी समस्याओं का समाधान गीता में प्रस्तुत किया है। गीता जीवन के द्वंद्वों के मूल कारण में जाती है। इस क्रम में वह ब्रह्म, आत्मा, प्रकृति, जीव सृष्टि का उद्भव, प्रकृति में तीन गुणों की सत्ता, देवता, स्वर्ग, मन, बुद्धि, चित्त, यज्ञ, कर्म, स्वधर्म, वर्ण, अवतार, श्रद्धा आदि के रहस्यों का उद्घाटन करती है। यह ऐसे रहस्य हैं जो हम इन्द्रियों के भौतिक संसार से बँधे रहने से समझ नहीं पाते हैं। इसके बाद इस नींव पर गीता जीवन जीने की कला की इमारत खड़ी करती है। इसलिए जीवन के हर द्वंद्व, हर संग्राम, हर उलझन में हर व्यक्ति का मार्गदर्शन गीता करती है।
महाभारत के अंश के रूप में गीता लम्बे समय तक लुप्तप्राय रही। इसे प्रकाश में लाने का श्रेय श्रीमद् आदिशंकराचार्य को जाता है जिन्होंने इस पर भाष्य लिखकर संसार के सामने रखा। आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द ने व्यवहारिक जीवन में गीता के महत्व से परिचित कराया। भारत में सभी महापुरुषों – शंकराचार्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, संत ज्ञानेश्वर, श्री अरविंद, तिलक आदि ने गीता पर भाष्य लिखे हैं। स्वतंत्रता संग्राम में सभी बड़े नेताओं – महात्मा गांधी, तिलक, श्री अरविंद, बनिोवा जी आदि ने गीता से प्रेरणा ली है। सनातन परम्परा में कोई भी मत, दर्शन या साधना पथ तभी मान्य होता है जब वह तीन ग्रंथों की कसौटी पर खरा उतरे। इन तीन ग्रंथों को प्रस्थानत्रयी कहते हैं। इनमें गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषद आते हैं। गीता रिलीजन, सम्प्रदाय, मजहबों से परे सर्वमान्य शास्त्र है – गीता विश्व के समस्त मानवों का ग्रंथ है चाहे वे किसी भी देश, नस्ल, भाषा या धर्म के क्यों न हों। गीता में भगवान् ने यह नहीं कहा कि हिन्दू या सनातनी ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। उन्होंने कहा है कि मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है – ‘सिद्धिं विन्दति मानव:। (18.46)। विश्व के अन्य सारे धर्मग्रंथ केवल अपने अनुयायियों के लिए हैं। बाइबल का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हुआ है परंतु यह ईसाई धर्म के प्रचार हेतु मिशनरियों ने किया है। कुरान का अनुवाद मुस्लिमों ने अपने धर्म प्रचार के लिए किया। दूसरी ओर संसार की ऐसी कोई भाषा नहीं जिसमें गीता अनूदित न की गई हो पर यह कार्य धर्म के प्रचार के लिए हिन्दुओं ने नहीं किया। यह कार्य विभिन्न देशों, धर्मों और भाषाओं के उन विद्वानों ने किया है जो गीता को पढक़र आश्चर्य चकित हो गये। उन्हें अपने धर्म और संप्रदाय के रीति-रिवाजों से अलग ऐसा अध्यात्म पता चला जो देश काल और परिस्थितियों से परे था, स्वयं परिपूर्ण था, सबके लिए था। प्रश्न यह है कि गीता में ऐसा है जो यह कालजयी है, सर्वमान्य है
गीता सभी के लिए है – जगत् को अनुभव करने के लिए मनुष्य के शरीर में ईश्वर ने पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं -कान, आँख, त्वचा, जिह्वा और नाक। इनसे हम आबाज सुनते हैं, रूप देखते हैं, स्पर्श करते हैं, स्वाद लेते हैं और गंध सूँघते हैं। संसार में किसी भी नस्ल, धर्म, भाषा आदि का मनुष्य हो उसके पास इन पाँच तरीकों के अलावा जगत् को जानने का कोई अन्य तरीका नहीं है। सभी मनुष्यों को विचार करने के लिए बुद्धि विवेक मिला है जो अन्य जीवों के पास नहीं है। इसके अलावा सभी मनुष्यों के पास प्राण ऊर्जा है, मन है और चित्त है। इस प्रकार सभी मनुष्यों के पास शरीर (इन्द्रियाँ), प्राण, मन, बुद्धि और चेतना है। गीता वह तरीका बताती है जिससे इनका उपयोग करके हमें जगत् के मिथ्यात्व को अनुभव कर सकें और जैसे ही यह होता है वैसे ही चेतन, जो हमारा सत्य स्वरूप है, प्रकाशित हो जाता है। यह वैसे ही है जैसे बदली के हटने से सूर्य प्रकाशित हो जाता है। प्रकृति से प्राप्त शरीर और जीवन का आधार ईश्वर का अंश – आत्मा – सभी मनुष्यों में एक समान है चाहे वह किसी भी धर्म, नस्ल या जाति के हों इसलिए गीता की शिक्षा सभी सांसारिक और वैचारिक भेदों से ऊपर उठकर सभी मनुष्यों के लिए है। गीता स्त्री, पुरुष, सामाजिक असमानता के स्तरों से भी परे है। गीता मानवों और पशुओं में, मानवों के बीच विभिन्न सामाजिक स्तरों के लोगों में समदर्शन की शिक्षा देती है (5.18) तथा स्त्रयिों सहित सभी वर्णों को सर्वोच्च गति प्राप्ति का आश्वासन देती है (9.32)।
गीता और शरीर के पंचकोश – गीता वह विधि बताती है कि किस प्रकार हम जगत् में रहते हुए, ईश्वर के दिये शरीर का उपयोग करके अपने सत्य स्वरूप को पहचान सकते हैं। ऐसा होने पर संसार के बदलने से होने वाले दु:ख और शोक से, पाप और पुण्य से हम ऊपर हो सकते हैं। एक उदाहरण से इसे समझें। जब कार चलाते हैं तो 5 चीजों का समन्वय करना पड़ता है – स्टेयरिंग, गियर, क्लच, एक्सीलेरेटर और ब्रेक। यदि यह सब समन्वय में कार्य न करें तो या तो कार चलेगी नहीं या दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगी। यही स्थिति हमारे जीवन को चलाने वाली इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि और चेतना के संबंध में है। वेदांत में इन्हें शरीर के पंचकोश कहा जाता है – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश। सामान्यत: हमारा जीवन बिखरा हुआ है। इन्द्रियाँ अनियंत्रित हैं, प्राण असंतुलित हैं, मन अपनी मनमानी कर रहा है, बुद्धि अनर्गल विचार कर रही है और अंत:करण की अशुद्धता के कारण चेतन का प्रकाश विकृत रूप में प्रतीत हो रहा है।
यदि एक रथ को पाँच घोड़े अलग अलग दिशाओं में खींचें तो उस रथ की दुर्गति होना निश्चित है। यही हाल हमारे जीवन का है। इसलिए संसार में सारी सुख सुविधाएँ जुटा लेने के बाद भी मनुष्य दु:खी है। इससे मुक्त िके लिए गीता जीवन में इन सबके समन्वय का तरीका बताती है।
गीता का दार्शनिक आधार – ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ – गीता, उपनिषदों का सार है। उपनिषदों में सत्य पर चिंतन किया गया है। उनका निष्कर्ष है कि जगत् मिथ्या है । मिथ्या का अर्थ यह नहीं कि जगत् का अस्तित्त्व नहीं है। जगत तो प्रत्यक्ष है, हम जगत को देखते हैं, स्पर्श करते हैं, महसूस करते हैं। परंतु इसे मिथ्या कहते हैं क्योंकि यह निरंतर अपना स्वरूप बदलता रहता है। जैसा दिखता है वैसा है नहीं । जो पैदा होता है वह अचानक मर जाता है। हर क्षण हवा, प्रकाश, ऊष्मा अपना स्वरूप बदल रही है, फूल पत्ती अपना रूप बदल रहे हैं, सागर, पहाड़ भी हर क्षण परिवर्तित हो रहे हैं। इस निरंतर परिवर्तनशील जगत् पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। जगत् के इस मिथ्या अस्तित्त्व के पीछे परम चेतना है जिसे ब्रह्म कहा गया है। गीता मानती है कि उसी ब्रह्म का अंश जीवों में आत्मा के रूप में है – ममैवांशो जीवलोके जीवभूत- सनातन- (15.7)। उसी चेतना के प्रकाश में जगत् चल रहा है और निरंतर बदल रहा है।
