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 जयलोक के पूर्व संपादक जयंत वर्मा : बहुआयामी जूझ के रणवीर

दैनिक जयलोक – प्रणाम जबलपुर-82 वॉ व्यक्तित्व
राजेंद्र चंद्रकांत राय

जबलपुर, (जयलोक )।  जयंत वर्मा से मेरी पहली मुलाकात आज से कोई तीसेक साल पहले हुई थी। वे मुझे अंतर्मुखी, शांत और सहज व्यक्ति लगे थे। नए व्यक्ति से अपनी ओर से मिलने की उत्कंठा उनमें दिखती न थी। एक मित्र-समूह था, जिसमें हम बतिया रहे थे। हमारा कोई औपचारिक परिचय नहीं कराया गया था। बिना परिचय कराए ही मैंने जाना था कि वे जयंत वर्मा हैं और ऐसे बौद्धिक हैं, जो विभिन्न मामलों में अपने मौलिक, स्वतंत्र और बेबाक  विचार रखते हैं। जैसी झील के ठहरे हुए जल की तरह उनकी देह-भाषा है, वैसी ही उनकी वाणी भी है। कोमल और तरल। अगर वे चुप हों, तो आप उनके बारे में जो भी अनुमान लगाएंगे वह गलत ही निकलेगा, क्योंकि उनसे बातें किए बिना आप उनकी गंभीरता और विचारों की तीव्रता को नहीं जान पाएंगे।
मैं उन्हें जानता हूँ और वे मुझे। यह जानना, बस जानने तक ही सीमित है। हममें अंतरंगता नहीं हो पाई है। हम बार-बार मिले हैं, कभी एक्टिविस्ट वीपी चतुर्वेदी और प्रदीप सिंह के साथ, तो कभी ज्ञानरंजन जी के घर पर जुटे दोस्तों के साथ चलने वाली गप्प-गोष्ठी में। एकाध बार किसी सेमिनार में भी। इस आलेख के लिए मैंने उनके बारे में कुछ खोजकर्म भी किया है।
उनका जन्म दार्जिलिंग में हुआ था। उनके पिता केके वर्मा एवनग्रोव टी एस्टेट्स की व्यवस्थाएं सम्हालते थे, लिहाजा वे एक मनोरम प्राकृतिक वातावरण के बीच अपना बचपन बिताते रहे। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवादी और शिक्षाविद् थे। वह समय ऐसे ही जीवन-दर्शन और जीने के खास मकसद से युक्त लोगों का समय रहा है। उनके कारण ही जयंत वर्मा के पालन-पोषण में आत्म-सम्मान, स्वाभिमान और राष्ट्रीय गौरव के तत्वों का रोपण हुआ। उनके पिता ने अपनी छाया और जीवनशैली से उन आदर्शों के बीज जयंत जी की आकांक्षाओं में मिला दिए थे, जिनसे एक सार्थक कही जाने वाली जिंदगी का निर्माण किया जा सकता हो। जयंत बाबू ने उन बीजों के पल्लवन-पुष्पन में योगदान करने में कोई कोताही नहीं की। उन्हें अपने निजी विचारों, उसूलों और भावनाओं के जल से सींचा और उसमें अपनी मौलिकता और निजत्व के फल लगाए।  वे मेधावी छात्र रहे हैं। उन्होंने हायर सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई मेरिट के साथ पूरी करने के बाद केमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की। उससे उन्हें संतोष नहीं मिला, तो वे जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में कृषि इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आ गए। पर वे एक लाइलाज रेटिनल डिटेचमेंट की व्याधि की चपेट में होने के कारण ऐसे तकनीकी और जटिल विषयों के साथ अपना जीवन-राग नहीं जोड़ सके। तब अपेक्षाकृत कम जटिल और अधिक आनंददायी कला क्षेत्र की तरफ उन्होंने रुख किया और इतिहास में मास्टर डिग्री प्राप्त की। वे यहीं पर रुक नहीं गए। अंदर ज्यादा से ज्यादा जानने और समझने की आकुलता ने उन्हें कानून, ललित कला और पत्रकारिता का अध्ययन करने के लिए उकसाया और वे उनमें भी निष्णात हुए।
विश्वविद्यालयीन विषयों के बाद उनकी जिज्ञासा वृत्ति उन्हें यूरोप की दुनिया में ले गई, जहाँ उन्होंने जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, स्विटजरलैंड, पोलैंड, डेनमार्क और हॉलैंड की यात्राएं कीं और उन जगहों के समाचार पत्रों के किए जाने वाले कामकाज का गहरा अध्ययन किया। इस अध्ययन ने जयंत बाबू को एक व्यापक समझ और दृष्टि से मंडित किया। वे लौटे और उन्होंने एक पत्रकार के तौर पर ही अपने जीवन की शुरुआत करने का निश्चय किया। पत्रकारिता ही वह क्षेत्र है, जहाँ पर आप अपनी वैचारिक स्वाधीनता और चिंतन की तेजस्विता के साथ अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं। पत्रकारिता केवल कलम-घिस्सू किस्म का काम या डेस्क-रिपोर्टिंग मात्र नहीं है, उसके लिए आपको उपयुक्त भाषा, सहज वाक्य विन्यास और निजी दृष्टिकोण की दरकार होती हैं। जयंत बाबू ने भीड़ से भिन्न होकर पत्रकारिताशैली को आपनाया है। वे जबलपुर के तब के सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित और प्रसारित हिंदी दैनिक नवभारत में सिटी रिपोर्टर के तौर पर अपनी कलम का जौहर दिखाने के लिए शामिल हो गए थे।   बाद में, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) के लिए भी काम किया और अन्य कई अख़बारों का संपादन कार्य भी। जयलोक के प्रारंभिक समय में वे इसके संपादक भी रहे।जिन दिनों वे  दैनिक ’जय लोक’ और नीति मार्ग में अपने तीखे संपादकीय लिखने के लिए जाने जाने लगे थे, तब उनसे विचलित होकर एक वरिष्ठ नौकरशाह ने कहा था, अगर कभी आपातकाल की घोषणा हुई, जयंत! तो तुम पहले व्यक्ति होगे जिन्हें हमें गिरफ़्तार करना होगा। तुम्हारे संपादकीय बहुत क्रांतिकारी होते हैं।  हो सकता है कि यह चेतावनी अथवा धमकी रही हो, पर इससे जयंत जी की निर्भीकता और अपने लिखे पर जमा हुआ भरोसा जरा सा भी नहीं डगमगाया, उल्टे वह और ज्यादा मजबूत ही हुआ, क्योंकि यही तो उनके लेखन का असली प्रतिसाद था।   कानून की पढ़ाई और उसके विधिवत ज्ञान ने उन्होंने पत्रकारों की वेतन संबंधी जारी नाजायज प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद की। यह एक लंबी लड़ाई थी, जो सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी गई थी। इसी के चलते वे मध्य प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। वे भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ (आईएफडब्लूजे) की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य भी हुए।
नीति मार्ग के मुख्य संपादक के रूप में, वे जनविरोधी नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हैं। वे चाहता हैं कि लोग अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ें। भारत के उन लोगों के पक्ष में नीतियाँ बनाई जाएँ, जिन्हें कई दशकों या सदियों से प्रताडि़त, शोषित, वंचित  और अनदेखा किया गया है।
उनकी जूझ बहुआयामी है। वे आदिवासियों के हितों और नर्मदा बचाओ आंदोलन की अग्रणी मेधा पाटकर के साथ बरगी बांध के विस्थापितों के पक्ष में भी सक्रिय रहे हैं। मेधा पाटकर से जयंत वर्मा की ऐसी आत्मीयता कि वे उन्हें अपनी स्कूटी में लाते ले जाते थे। उन जैसे लोगों से ही किसी शहर का मिजाज बनता है।

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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