
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक

‘गीता को जानें’ लेखमाला- (18)
मनुष्य मूलत: सत्,चित् और आनन्द के स्वरूप परमात्मा का अंश है अत: शक्तिहीनता, कायरता और विषाद उसका मूल स्वभाव नहीं है। हम इस सत्य को समझ जाते हैं तो हमें अपने बल का ज्ञान हो जाता है तब जीवन में आने वाली समस्याओं पर रोना-धोना समाप्त हो जाता है।
गीता के दूसरे अध्याय का नाम है सांख्ययोग। गीता का सांख्य, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन, जो वेदांत के छ: दर्शनों में से एक है, से भिन्न है। गीता की विशेषता है कि वह प्राचीन शब्दों को नए अर्थों में प्रयुक्त करती है। आगे चलकर हम गीता में धर्म, यज्ञ, संन्यास, आदि को नए अर्थों में प्रयुक्त होते देखेंगे, ऐसे नए अर्थ जो दार्शनिक विवादों से परे सीधे जीवन से जुड़े हैं। इसी तरह यहाँ सांख्य का अर्थ है – बुद्धि, विवेक । सामान्यत: विभिन्न मतों, संप्रदायों के धार्मिक ग्रंथ अपनी बातों पर विश्वास करने पर जोर देते हैं पर गीता इस मामले में विलक्षण है। वह बुद्धि-विवेक जाग्रत करने, उन्हें शुद्ध बनाने और अनुभव करने पर जोर देती है। इस प्रकार गीता का सांख्ययोग, वह योग है, जो बुद्धि और विवेक से सधता है।अभी तक अर्जुन अपने को ‘देह’ मान रहा था और ‘देह’ के कारण बने संबंध अर्थात् नाते-रिश्तेदार, धन-संपत्ति, राज्य, भौतिक सुखभोग को ही सत्य मान रहा था। उसकी दृष्टि शरीर व संसार तक ही सीमित थी। अर्जुन के इस अज्ञान को दूर करने के लिए इस अध्याय में भगवान् उसे आत्मा की अमरता, देह का नश्वर होना, जीवन में सुख-दु:ख की अपरिहार्यता आदि बातें बताएँगे। जीवन की वास्तविकता का यह ज्ञान, शुद्ध बुद्धि में प्रविष्ट होकर, विवेक विचार के माध्यम से अंतर में दृढ़ हो जाता है तब व्यक्ति संसार के परिवर्तनों को साक्षी भाव से देखता है और वह अज्ञान जनित मोह व दु:ख से परे हो जाता है।भगवान् ने अर्जुन के पूरे तर्क सुने, बीच में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जब अर्जुन चुप होकर, धनुष-बाण का त्यागकर, बैठ गया तब भगवान् श्रीकृष्ण की बारी आई। संजय कहते हैं – इस प्रकार दयनीयता से व्याप्त, बैचेन और आँसू भरी आँखों वाले, उदास मन, अर्जुन से मधुसूदन ने यह बात कही (गीता 2.1)। श्री भगवान् ने कहा कि इस संकट में तेरे में यह विषादरूपी दोष कहाँ से आया यह आचरण अनार्यों से सेवित है और यह स्वर्ग नहीं अपयश देनेवाला है (गीता 2.2)अर्जुन ने युद्ध के जो परिणाम बताए थे, भगवान् ने उनका प्रतिवाद नहीं किया। सांसारिक दृष्टि से देखें तो युद्ध के परिणाम वैसे ही निकले जैसे अर्जुन ने कहे थे। परन्तु भगवान् की दृष्टि संसार तक सीमित नहीं है। जीवन में आने वाले सुख-दु:ख व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए परिस्थितियाँ उपलब्ध कराते हैं। व्यक्ति इन परिस्थितयों का तभी उपयोग कर सकता है जब वह जीवन की वास्तविकता को समझता हो इसलिए भगवान् अर्जुन को सत्य का बोध कराते हुए आगे बढ़ते हैं। अर्जुन में यह करुणा स्वाभाविक नहीं थी, वह वाह्य कारणों से आरोपित हुई थी और यह कारण था कर्तव्य कर्म से प्राप्त होने वाली मानसिक वेदना से बचना। स्वजनों के मोह में भ्रमित होकर अर्जुन की बुद्धि धर्म-अधर्म, कर्तव्य–अकर्तव्य का निर्णय नहीं कर पा रही थी। इसलिए अर्जुन जिसे अपना ज्ञान समझ रहा था भगवान् ने उसे दोष कहा है।अर्जुन के मन में था कि भगवान् उसके विचारों का अनुमोदन करें, सहानुभूति प्रकट करें पर यहाँ तो भगवान् ने पहले वाक्य में ही अर्जुन को जोरदार झटका दे दिया। भगवान् ने आश्चर्य व्यक्त किया कि युद्ध जैसी परिस्थिति में ऐसे हीन विचार कहाँ से आ गये और एक साथ तीन आघात किये – ऐसा आचरण तो अनार्य लोग करते हैं न कि आर्य लोग, ऐसे आचरण से स्वर्ग भी नहीं मिलता और अपयश ही हाथ आता। अर्जुन अपने समय का प्रसिद्ध योद्धा था। वह अपना कर्तव्यकर्म छोड़ता और युद्ध से विमुख होता तो यह तीनों परिणाम होना अवश्यंभावी थे।इसके बाद गीता का प्रसिद्ध श्लोक आता है जो जीवन संग्राम में पुरुषार्थ और आत्मविश्वास को प्रथम स्थान देता है। भगवान्, जीवन संग्राम से पलायन न करने और विषम परिस्थितियों का सामना पुरुषार्थ से करने की प्रेरणा दे रहे हैं। भगवान् कहते हैं कि – हे पार्थ ! नपुंसकता की ओर मत जा। यह तुझ में शोभा नहीं देती। हे परंतप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर उठ खड़ा हो जा (गीता 2.3)। शिक्षा देने का श्रेष्ठ तरीका है कि शिष्य की कमियों को इस पृष्ठभूमि में बताया जाये कि तुम तो इतने अच्छे हो, गुणवान् हो इसलिए तुम्हें ऐसी गलतियाँ शोभा नहीं देतीं।
इससे शिष्य हीनभावना से ग्रस्त नहीं होगा और उसमें आत्मविश्वास जाग्रत होगा। इसी पद्धति का उपयोग करते हुए भगवान् कह रहे हैं कि तुम तो इतने वीर हो, कुलीन हो इसलिए ऐसी नपुंसकता तुम्हें उचित नहीं है। यहाँ नपुंसकता का भाव है शौर्य, तेज और धैर्य से रहित अवस्था। यहीं भगवान् ने अर्जुन को परंतप शब्द से संबोधित किया जिसका अर्थ है अपनी वीरता से शत्रुओं को संतप्त करने वाला। भगवान् हर शब्द का उपयोग अर्जुन को उसके सर्वश्रेष्ठ गुणों की याद दिलाने में कर रहे हैं। अर्जुन का मूल स्वभाव मोह से उत्पन्न दुर्बलता से दब सा गया था और भगवान् उसी की याद दिला रहे हैं। मनुष्य मूलत: सत्, चित् और आनन्द के स्वरूप परमात्मा का अंश है अत: शक्तिहीनता, कायरता और विषाद उसका मूल स्वभाव नहीं है। हम इस सत्य को समझ जाते हैं तो हमें अपने बल का ज्ञान हो जाता है तब जीवन में आने वाली समस्याओं पर रोना-धोना समाप्त हो जाता है। व्यक्ति सिंह की तरह गर्जन करके उन समस्याओं का सामना करता है। रामायण में जाम्बवान् ने हनुमान जी को उनके बल और बुद्धि-विवेक की याद दिलाई तभी वे सीता माता की खोज में समुद्र लाँघ सके।भगवान् हृदय की दुर्बलता का त्याग करने को कहते हैं। यह तभी हो सकता है जब हृदय में अपनी शक्तियों का विश्वास होगा और आत्मश्रद्धा होगी। खड़े होने का अर्थ है जो परिस्थिति आई है उसका सामना करो। संसार का सामना करने के लिए साहस, धैर्य और बल चाहिए। यह सब सद्गुण हैं। दुर्बलता कदापि सद्गुण नहीं हो सकती। गीता, शक्ति और अभय का संदेश देती है।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि अगर आप गीता के इन दो श्लोकों (2.2 और 2.3) की भावना को समझ जाते हैं तो सम्पूर्ण गीता के भाव को समझ जाते हैं।
जीवन में पुरुषार्थ और आत्मविश्वास का सर्वप्रथम स्थान है। भगवान् चाहते तो यहीं कह सकते थे कि मेरे निमित्त बनकर युद्ध करो या सभी कुछ मुझे समर्पित कर दो। परंतु ऐसा नहीं कहा क्योंकि इन अवस्थाओं का उचित समय तब आता है जब व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के चरम तक प्रयास कर लेता है। इसलिए ईश्वर का निमित्त बनने की बात गीता में लगभग मध्य में (11.33) तथा ईश्वर के समक्ष पूर्ण समर्पण की बात गीता के अंत में (18.66) आई। जीवन में इस क्रम को समझना आवश्यक है अन्यथा हम ईश्वर को समर्पण के बहाने भी पलायन का रास्ता खोज लेते हैं। (क्रमश:)

Author: Jai Lok
