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जीवन प्रवाहमान नदी जैसा है जिसका कुछ ही हिस्सा हम देख पाते हैं

ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक

जब तक सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक जीव एक से दूसरे शरीर की यात्रा करता रहता है। जब साधक को यह अनुभूति हो जाती है कि इस शरीर के पूर्व में भी उसका अस्तित्व में था और शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी उसका अस्तित्व रहेगा, तब शोक का कोई कारण नहीं रह जाता।
भारत, अध्यात्मिक सत्य की खोज की प्रयोगशाला रही है। हमारी जीवनशैली में अध्यात्म गुँथा है। जन्म से मृत्यु तक की परम्पराएँ, रीति-रिवाज आदि का आधार धर्म है। इसी का परिणाम है कि भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि शरीर नष्ट होता है जबकि आत्मा अजर-अमर और अविनाशी है। परंतु यह सत्य मात्र जानकारी बनकर रह गया, अनुभव में नहीं बदल पाया । इसलिए यह सत्य जानते हुए भी हम मृत्यु से भय खाते हैं और शोक करते हैं। भगवान् इस सत्य को अर्जुन के भीतर उतारना चाहते हैं इसलिए वह गीता में सिद्धांत, उनकी साधना पद्धति और उनके परिणाम अर्थात् सिद्धि की अवस्था का वर्णन करते है। भगवान् कहते हैं – ‘न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे (गीता 2.12)’।
मृत्यु के भय का कारण ही यह है कि हम नहीं जानते कि मृत्यु के बाद क्या होगा अज्ञात हमेशा भय पैदा करता है। हमें लगता है कि मृत्यु के बाद हमारा अभाव हो जाएगा। इस भ्रम को मिटाते हुए भगवान् यहाँ जीव की अनित्यता का संदेश दे रहे हैं। जीवन निरंतर प्रवाहमान नदी की तरह है । उसका कुछ ही हिस्सा हम देख पाते हैं। परंतु हमारी दृष्टिसीमा के पहले से नदी बहती आ रही है और उसके बाद भी बहती रहेगी जब तक वह समुद्र में नहीं समा जाती। इसी तरह जब तक सर्वोच्च सत्य की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक जीव एक से दूसरे शरीर की यात्रा करता रहता है। जब साधक को यह अनुभूति हो जाती है कि इस शरीर के पूर्व में भी उसका अस्तित्व में था और शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी उसका अस्तित्व रहेगा, तब शोक का कोई कारण नहीं रह जाता। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए भगवान् कहते हैं – ‘जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता (गीता 2.13)’ हमारे शरीर की कोशिकाएँ प्रतिक्षण बदलती हैं। हजारों कोशिकाएँ नष्ट होती हैं और नई बनती रहती हैं। विज्ञान के अनुसार 12 वर्षों में तो पूरा शरीर ही बदल जाता है।
यह बदलाव इतना शूक्ष्म होता है क िहमें पता नहीं चलता परन्तु शरीर की अवस्थाओं में बदलाव तो समझ में आता है। इसलिए भगवान् अत्यंत व्यवहारिक उदाहरण से समझाते हैं कि शरीर की अवस्थाएँ, बचपन, यौवन और वृद्धावस्था के बदलाव को जानते हुए भी हम सहजता से स्वीकार कर लेते हैं। इसके लिए कभी शोक नहीं करते। भगवान् कह रहे हैं कि इसी क्रम में एक चौथी अवस्था है – मृत्यु, जिसमें यह पूरा शरीर बदल जाता है। जीव नया शरीर धारण कर अपनी यात्रा प्रारंभ करता है। हम कहते हैं जब ‘मैं’ बच्चा था या ‘मै’ ने अमुक स्वप्न देखा या आज ‘मैं’ सुख से सोया – तो जो ‘मैं’ अर्थात् ‘मेरा अस्तित्त्व’ या ‘मेरा होनापन’ इन अवस्थाओं का अनुभव करता है वह यथावत् रहता है, कभी नहीं बदलता। आप कुछ क्षण के लिए आँख बंद करके विचार शून्य हो जाएँ तो अपने ‘होने’ का भान होता है वह कभी नष्ट नहीं होता। जीव का शरीर धारण करना सांसारिक भोगों के लिए नहीं है, यदि ऐसा होता तब तो पशु शरीर ज्यादा उपयुक्त होता। इसका उद्देश्य सर्वोच्च, हम ईश्वर के अंश हैं, को जान लेना है। यहाँ जानने का अर्थ पढक़र या सुनकर जानकारी ले लेना नहीं है। यहाँ जानने का अर्थ है इस सत्य की आंतरिक अनुभूति कर लेना। हमें इस सत्य का निरंतर चिंतन, मनन और निदिध्यासन करना है ताकि यह हमारे अंतर में उतर जाए। तब यह धारणा कि ‘मैं देह हूँ’ समाप्त हो जाती है तथा भ्रम और मृत्यु के शोक का कोई कारण नहीं बचता। जिसे नित्य-अनित्य, सत्-असत् का ऐसा बोध हो जाता है, वह फिर जीवन के परिवर्तनों से उद्वेलित नहीं होता इसलिए उसे भगवान् धीर कहते हैं।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि, ठीक है कि आत्मा अमर है परंतु जिस वर्तमान शरीर में मैं रह रहा हूँ उससे मुझे प्रेम हो ही जाता है। उससे बदलाव पर दु:ख क्यों नहीं होगा इसके निराकरण के लिए भगवान् जीवन का कटु सत्य बतलाते हैं – ‘हे कुन्तीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देनेवाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर (गीता 2.14)’। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं – कान, त्वचा, आँख, जिह्वा और नाक। यह क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, सर और गंध को ग्रहण करती हैं। यह इन इंद्रियों के विषय कहलाते हैं। इन्हीं से हमें संसार का ज्ञान होता है। यदि आँख के सामने शून्य हो तो वह कुछ भी ग्रहण न कर सकेगी परंतु जब उसके सामने रूप हो तो आँख उसे देखेगी और उसका हमारे चित्त पर प्रभाव पड़ेगा। वह रूप हमें अच्छा लगेगा या बुरा। इसी तरह अन्य इंद्रियाँ भी जब अपने विषयों से संयोग करती हैं तो हमें अच्छा या बुरा अनुभव होता है। यह सभी अनुभव सदैव जोड़े में आते हैं जैसे सुख-दु:ख, ठंडा-गर्म, रात-दिन आदि। इसलिए संसार को द्वांद्वात्मक कहते हैं। एक आएगा तो दूसरा आएगा ही। हम इससे बच नहीं सकते। ऐसा नहीं हो सकता क िजीवन में सदैव अनुकूल परिस्थिति ही रहे। भगवान् दूसरा सत्य बताते हैं क ियह परिस्थितियाँ अस्थाई होती हैं, आती-जाती रहती हैं। विपरीत परिस्थितयों को पुरुषार्थ से अनुकूल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए परंतु आवश्यक नहीं कि इसमें सदैव सफलता मिल ही जाए । इसलिए प्रतिकूल परिस्थिति आने पर रोते-झींकते नहीं रहना चाहिए। भगवान् कहते हैं कि अपरिहार्य स्थिति को सहन करना ही होगा। सहन करने के लिए मानसिक दृढ़ता पैदा करो, आत्मिक बल जाग्रत करो और धैर्य धारण करो – यह गीता की महान शिक्षा है। इससे आध्यात्मिक विकास होगा। आजकल धर्म के नाम पर पर्ची निकालकर, शंख, ताबीज या रुद्राक्ष बाँटकर सारे दु:ख दर्द दूर करने का धंधा चरम पर है।
सोचें यदि ऐसा होता तो अब तक तो संसार स्वर्ग ही बन गया होता। गीता बताती है संसार में कोई भी सदैव सुखी नहीं रहा। राम और कृष्ण जैसे अवतारों को भी जीवन के इस कटु सत्य से साक्षात्कार करना पड़ा है। आशा ही बात यह है क ियह सुख-दु:ख भी स्थाई नहीं हैं, आते जाते रहते हैं। इस श्लोक में आए तितिक्षा शब्द की परिभाषा देते हुए विवेक चूड़ामणि में आचार्य शंकर कहते हैं – सभी दु:खों को बिना चिन्ता के, बिना रोये तथा प्रतिकार की भावना के बिना सहन करना तितिक्षा कहलाता है। भगवान् कह रहे हैं क िजीवन में कठिन परिस्थिति आने पर उसका सामना करना है पर सफलता न मिले तो धैर्य रखते हुए उसे सहन करना है क्योंक िहर परिस्थिति अस्थाई है। यही आनंदपूर्वक जीने का सूत्र है। (क्रमश:)

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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