
श्री अजित वर्मा
भारतीय इतिहास में मोड़ देने वाले कुछ ऐसे युद्ध हैं जिनके परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण कहे जा सकते हैं। हल्दी घाटी, उदवानालाल पलासी का मैदान, पानीपत का मैदान, सामूगढ़ आदि ऐसे रणक्षेत्र हैं जिनके अनुकूल परिणामों पर इतिहास के मोड़ ही कुछ और हुए होते। भारतीय इतिहास के कितने ही युद्ध जीत की सीमा छूते-छूते पराजय में बदल गये हैं। भाग्य में भरोसा रखने वाले इसे दुर्भाग्य की संज्ञा देंगे। कुशल राजनीतिज्ञ और रणकौशल -विशारद इस विद्युत परिवर्तन में सफल सैन्य संचालन का अभाव देखेंगे। ईष्र्या, द्वेष, विश्वासघात, स्वार्थ और देशद्रोह को भी सामूहिक कारण बतलाया जावेगा। जो भी कारण हो, भारतीय युद्धों की इस जीत-हार की आंख मिचौली वाली परम्परा में नर्रई का युद्ध भी है। काश! नर्रई नाले में दुर्गावती की दूरदर्शिता कामयाब हुई होती।
अकबर ने अपनी प्रभुता के लिए ‘भेडिय़ा और मेमने’ का बहाना लेकर अनेक राज्यों पर आक्रमण किया और अपने सामा्रज्य का विस्तार किया। यही नीति उसने दुर्गावती के साथ बरती। दुर्गावती के राज्यकाल का जो भी वर्णन प्राप्त है, उससे यह स्पष्ट है कि प्रजाजन सुखी थे, वैभव और समृद्धि थी, अन्न-जल-वस्त्र की सुविधा प्रचुरता के साथ थी। साम्राज्यवाद की लिप्सा से रानी दुर्गावती पूर्ण मुक्त थी और विधवा रानी अपने नन्हें पुत्र वीरनारायण की ओर से शासन भार संभाले थी। जहां -तहां जलाशयों का निर्माण किया गया था। सरायों और विश्रामगृहों का निर्माण किया गया था और सम्पूर्ण राज्य नगरों और गांवों को सुव्यवस्था के साथ बसाया गया था। ऐसे सुन्दर वैभवशाली भू-भाग पर अकबर की कुदृष्टि न पड़ती तो आश्चर्य होता। आसफ खां के सेनापतित्व में विशाल मुगल सेना दुर्गावती के वैभवशाली राज्य को हड़पने दमोह की ओर से बढ़ी- जिस समय आसफखां ने पन्ना के भूभाग पर हमले करके विजय प्राप्त की, उस समय रानी दुर्गावती अपने राज्य को वैभव के चरम शिखर पर पहुंचा चुकी थी। रानी दुर्गावती को किसी भी प्रकार भय नहीं था। लेकिन आसफ खाँ विजयोन्माद में आगे बढ़ रहा था। आसपास के किले उसने फतह कर लिये थे और उनमें अपने जासूस तैनात कर दिये थे। अपने तिजारती नुमाइन्दे उसने रानी दुर्गावती के इलाके में भेज दिये थे और उनसे आसफ खां ने सारा भेद मालूम कर लिया था। इन्हीं लोगों से उसे मालूम हुआ था कि रानी के पास अटूट धन, सोना और असंख्य रत्नराशि हैं। बहाना खोजने के लिये उसने आसपास के मौजों और गांवों में लूटमार शुरू कर दी और शाहंशाह अकबर का हुक्म लेकर बाजाब्ता गढ़ा-मंडला पर चढ़ाई बोल दी। 10 हजार घुड़-सवार और अनगिनत पैदल सेना लेकर आसफ खां दुर्गावती से लडऩे बढ़ा। आसफ खां के साथ बड़ा लाव-लश्कर था। शाही आज्ञा से गढ़ा-मंडला के पड़ोस के जागीरदार भी अपनी-अपनी टुकड़ी के साथ आसफ खां के साथ हो लिये- मुहिब अली खां, मुहम्मद मुराद खां, बजीर खां, बाबाए काकशाल, नजर बहादुर और शाक मुहम्मद। रानी दुर्गावती को अभी तक अन्दाज नहीं हो पाया था कि शाही फौज कहां तक बढ़ आई है! और अचानक रानी दुर्गावती की सेना यह खबर पाते ही अपने आपको घिरा हुआ समझकर घबरा गई और अपने बाल-बच्चों के सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने के लिए बिखर गई। इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद अकबर की विजयी सेना के साथ जूझने के लिए रानी तैयार हो गई। एक कुशल कूटनीतिज्ञ के समान अधार सिंह दीवान ने रानी को उस समय सलाह दी कि अच्छा हो कि सुलह कर ली जावे और जंग का मौका टाल दिया जावे। लेकिन रानी दुर्गावती ने कडक़ते हुए उत्तर दिया- ‘मैं सिंह नारी हूँ। क्या सिंह और सिंहनी कभी मैदान छोडक़र भागते हैं? मैदान में भाग जाना वीरों का, क्षत्रियों का, जवां-मर्दों का काम नहीं है। मैं जिल्लत की जिन्दगी से इज्जत की मौत कहीं अधिक पसन्द करूंगी। मैंने सोलह साल इस देश पर राज्य किया है। मैं भाग जाऊं- यह विचार भी मेरे मन में कभी नहीं आ सकता। अगर प्रजापालक ही मुल्क छोडक़र भाग जाये तो उसकी प्रजा उसे क्या सम्मान देगी? मैं अपनी आन पर जान कुरबान कर देना अधिक अच्छा समझती हंू और अच्छा यही है कि बहादुरी के साथ जान कुरबान कर दी जावे।’’ वहां आसफ खां दमोह से जबलपुर की ओर बढ़ता ही चला आ रहा था। दुर्गावती के पास उस समय कुल जमा दो हजार पैदल सेना थी। एक मत से सभी ने युद्ध करने का निश्चय किया और तय किया कि कूटनीति से काम लिया जावे। रानी दुर्गावती ने सारी स्थिति का गहन अवलोकन किया और फिर सेना के साथ गढ़ा के पश्चिम की ओर चली। अंत में उसने नर्रई के पास पड़ाव डाला। यह स्थान ढलवान जंगलों में है। गढ़ा के उत्तर में यहां पहाडिय़ाँ हैं। एक ओर पहाड़ी गौर नदी है और दूसरी ओर गहरी नर्मदा। सामने कोरनाम जलाशय था। चारों और से इस स्थान में घुसना और निकलना भयानक और कठिन था। नर्मदा के पार मौजा करीबा है जहां नर्मदा पार कर के जाना बड़ा खतरनाक था। यहां रानी रुक कर शाही सेना के मुकाबिले के लिए तैयार हो गई। इस समय तक रानी की सेना में पांच हजार सैनिक हो चुके थे। रानी को इसी बीच सूचना मिली कि शाही सेना की टुकड़ी ने (सेनानी नजर मुहम्मद और आक मुहम्मद) नर्मदा पार मौजा करीबा पर अधिकार कर लिया है और गज-सेनानी अर्जुनदास बैस संघर्ष में बहादुरी के साथ लड़ते-लड़ते काम आये हैं। रानी सैनिक वेशभूषा में हाथी पर सवार सेना के आगे चली। उसने मैदान में अपनी सेना को संबोधित किया- ‘‘वीरों, नुमाइशी बहादुरी और झूठी जवां मर्दी दिखाने के लिए एकदम आगे न आयें। तब तक लड़ाई शुरू न की जावे जब तक शत्रु सेना को चारों ओर से घेर न लिया जावे।’’ जैसा सोचा जा रहा था, वही हुआ। दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ और हजारों सैनिक खेत रहे। शाही सेना के तीन हजार सैनिक मारे गये। मुगल सेना के पैर उखाड़ गये और वह भाग खड़ी हुई। रानी ने करीबा की ओर से भागने वालों का शाम तक पीछा किया। जीत रानी दुर्गावती की हुई। रात को रानी दुर्गावती ने सेनानियों के साथ सलाह मशविरा किया। रानी का सुझाव था कि रात को ही (शबे खून) मुगल सेना पर अचानक आक्रमण बोला जाये और शाही सेना को परास्त किया जाये। पर रानी की यह मौजूं सलाह दुर्भाग्य से फौजदारों को पसंद नहीं आई। काश… रानी का यह सुझाव मान लिया होता तो युद्ध उसी रात समाप्त हो जाता और मुगल फौज का खात्मा हो जाता! पर होना कुछ और ही था। लिहाजा जब सुबह हुई तो जैसा अंदेशा था, वैसा ही हुआ। आसफ खां अपना तोपखाना लेकर मोरचे पर डट गया था और करीबा का मोर्चा संभाल लिया था। सूरज की किरणें निकलते-निकलते मुगल सेना पहाड़ी क्षेत्र में घुस गई थी। अब क्या हो सकता था?अपने विशाल और बेगवान हाथी पर सवार रानी सेना का संचालन करने लगी। मस्त हाथियों की टुकड़ी उसने अपने दायें-बायें रखी। तीरों की वर्षा, तलवारों की झंकार, भालों की रफ्तार, खंजरों के बार, हाथियों और घोड़ों की दौड़। रानी का पुत्र वीरनारायण (वीरशाह) बड़ी वीरता से लड़ा और उसने रणभूमि में अपनी तलवार के जौहर दिखाये, तीन बार वीरनारायण ने शाही फौज के ब्यूह को तोड़ दिया और पीछे हटा दिया। लेकिन इस पराक्रम और वीरता के बीच वह जख्मी हो गया था। रानी को जब उसके घायल होने की खबर मिली तो उसने अपने अत्यधिक विश्वास पात्र सैनिकों को आदेश दिया कि वीरनारायण को रणक्षेत्र से दूर किसी सुरक्षित स्थान में पहुंचा दिया जावे। स्वयं वह मैदान से जरा भी विचलित नहीं हुई। राजा वीरनारायण के हटते ही गोंड़ सेना में एक प्रकार की खलबली मच गई। सिपाही सहसा मैदान छोडक़र भागने लगे और फौज तितर-बितर होने लगी। इस गड़बड़ी के बावजूद रानी जरा भी नहीं घबड़ाई और सैनिकों को प्रोत्साहित करती रही। सहसा दुर्भाग्य के रूप में एक तीर सीधा उसकी शकीक (बाजू) पर लगा। बिना धीरज छोड़े उसने हिम्मत करके तीर को बाहर निकाला। तीर तो बाहर निकल आया पर उसकी अनी अन्दर ही रह गई। अचानक उसका दूसरा तीर उसकी गर्दन में आ लगा। यह भी जवां मर्दी के साथ उसने निकाला पर पीड़ा से वह लडख़ड़ा उठी।
बादल घिरे हुए थे। जून का महीना था। ऊपरी भागों में पानी गिरने के कारण सहसा नर्रई नाला घर्राता हुआ बहने लगा और देखते-देखते उसमें इतनी बाढ़ आ गई कि सूखे नाले ने भयानक बेगवती पहाड़ी नदी का रूप धारण कर लिया। रानी का पीछे हटना कठिन हो गया। शरीर की पीड़ा, तोपों का अंधाधुंध वर्षा और नाले का दुश्मनी रुख देखकर रानी हताश हो गई। अधार सिंह, जो बहादुरी में पक्का था, रानी के साथ ही था। रानी अपने विश्वासी साथी से बोली – ‘‘तेरी नमकख्वारी और वफादारी से मुझे पूरी उम्मीद थी कि तू एक न एक दिन मेरे काम जरूर आयेगा । आज वह दिन आ गया है। मैं युद्ध क्षेत्र में घिर रही हूं। कहीं ऐसा न हो कि इज्जत और अस्मत भी खाक में मिल जाये और मैं दुश्मन के हाथ आ जाऊं। इस समय अधार सिंह, तुम वफादारी का हक अदा करो और इस खंजर से मेरा खात्मा कर दो। ’’ ‘‘अधार सिंह का दिल इस बेरहमी के लिए तैयार नहीं था। अधार सिंह ने कहा- ‘‘रानी? आपकी इतनी नवाजिशें मुझ पर हैं कि मैं इस काम के लिए अपने आप में कूबत नहीं पाता। मैं इतना अवश्य कर सकता हूं कि आपको मैदाने-जंग से सही सलामत बाहर ले जाऊं क्योंकि मुझे हाथी पर पूरा विश्वास है। रानी इस उत्तर को सुनकर क्रोध से तिलमिला गई और आधार सिंह से झिडक़ कर बोली-‘उफ तू मेरी बेइज्जती पसन्द करता है।’ इतना कहने के साथ ही रानी ने कटार छीनकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली। रानी की बाकी फौज वफादारी के साथ अपनी रानी पर कुर्बान हो गई।
नर्रई नाले के युद्ध में शाही सेना और आसफ खां को कामयाशी और शानदार फतह मिली। इनके बाद तो आसफ खां ने बड़े रिसाल के साथ चौरागढ़ पर चढ़ाई की जहां रानी दुर्गावती के एकमात्र पुत्र वीरनारायण खेत रहे। जौहर हुआ और गोंड़वाने के वैभव का सूर्य मध्य आका से तेजी के साथ ढलना शुरू हुआ। गढ़ा-मंडला की अटूट असंख्य धनराशि विजेताओं के हाथ लगी- 1000 हाथी, बेहिसाब खजाना हाथ लगा, ठोस सोने के अनगिनत चीजें और एक सौ बड़े हंडे लवालब अशर्फियों से भरे हुए। नर्रई नाले की लड़ाई 23 जून और 24 जून 1564 को लड़ी गई और 24 जून को रानी दुर्गावती की जीवन-लीला समाप्त हुई। इस लड़ाई में रानी के सब विश्वास -पात्र साथी, सेनानी काम आये-अर्जुनदास बैस, सरदार शम्सखां मियान, मुबारक खां तूग, कुंवर कल्याण, चक्रमनि खरजी, खानजहां चकित और महाराखन ब्राह्मण सभी खेत रहे।


Author: Jai Lok
