
जबलपुर, (जयलोक )। जबलपुर की एम्पायर टाकीज अब नहीं रही। एम्पायर थी, तो उसके बहाने प्रेमनाथ भी भी यहीं बसे हुए थे। वह अपनी प्राचीनता और विरासत के साथ एक दिन ढह गई। उसे बचाया जाना था, पर बचाने वाली नजरों ने उसे बचाने के दायित्व से ही अपनी नजरें बचाए रखीं। किसी इमारत के सौ साल हो जाने पर उसे धरोहर घोषित किए जाने का कानून है। फिर एम्पायर टॉकीज का अपना विशिष्ट स्थापत्य भी था। वह ग्रीक थिएटरशैली वाली इमारत थी। 2018 में वह सौ साल की होने वाली थी। हाल ही में रेल्वे के जमतरा पुल का भी यही हाल किया गया। वह 2027 में सौ साल का होने वाला था। मजबूत और दमदार था। विरासत था और पर्यटन स्थल के तौर पर उसके महत्व को बनाए रखा जा सकता था, परंतु हम तो हैरिटेज को बचाने की बजाय उसे कबाड़ बनाकर बेचने के धंधे के व्यापारी मनोवृत्ति वाले ठहरे। एम्पायर टाकीज को अंग्रेजों के समय में 1918 में बनाया गया था। तब वह एक थिएटर हुआ करती थी। वहां नाटक, बैले और आयोजन हुआ करते थे। बाद में फिल्में भी प्रदर्शित की जाने लगी थीं। जब सवाक् फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो 1929 में म्यूजिकल कॉमेडी फिल्म ’रियो रीटा’ का प्रदर्शन हुआ था। इसकी मालकिन अंग्रेज महिला बेलामी हुआ करती थीं। प्रेमनाथ को अपने बचपन के खिलंदड़े काल में ही सिनेमा देखने का चाव हो गया था। वे एम्पायर टाकीज में सिनेमा देखने गए थे, परंतु गेट बंद हो चुके थे और सिनेमा चालू हो चुका था। बावजूद इसके बंद गेट प्रेमनाथ की सिनेमा देखने की इच्छा शक्ति को नहीं रोक सके। उन्होंने परिसर की दीवार फांदी और अंदर पहुंच गए। दीवार फांदकर सिनेमा देखने चले गए थे। इस सफलता का वे ज्यादा देर तक आनंद नहीं ले सके थे, क्योंकि तभी उन्हें सिनेमा के कर्मचारी ने पकड़ लिया था और अच्छी खासी फटकार लगाते हुए टाकीज से बाहर निकाल दिया था। निकाले जाते समय उन्होंने उस कर्मचारी से कहा था, देखना एक दिन इस टाकीज को मैं खरीद लूंगा। वह कर्मचारी एक किशोर की ऐसी बड़बोली बात सुन कर हँसा ही होगा। पर प्रेमनाथ ने 1952 के साल में उसे सचमुच खरीद लिया था और उद्धघाटन के लिए उन्होंने वही अनोखा तरीका अपनाया था, यानी दीवार फांद कर ही वे उसके परिसर में पहुंचे थे। ऐसे अनोखे व्यक्तित्व के मालिक प्रेमनाथ का जन्म 1926 में हुआ था। उनके पिता करतारनाथ मल्होत्रा अंग्रेजों की पुलिस में कप्तान हुआ करते थे। करतारनाथ को उस तरह याद नहीं किया जा सकता, जिस तरह से हम प्रेमनाथ को उनकी अभिनय कला के कारण याद करते हैं। करतारनाथ एक दुष्ट पुलिस अधिकारी के रूप में जाने जाते रहे हैं। स्वाधीनता सेनानियों के साथ उनके हुक्म से बुरा से बुरा बरताव किया जाता था। कभी नरसिंहपुर से विधायक और मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग के चेयरमेन रहे मिरे मित्र विनय दुबे ने मुझे बताया था, कि उनके पिता चौधरी शंकरलाल स्वाधीनता सेनानी के तौर पर जेल में थे। करतारनाथ ऐसे बंदियों से मटके में भरा मैला ढुलवाया करते थे और जब वे अपने सिर पर मैले से भरा मटका लेकर उसे फेंकने जा रहे होते, तब कोई पुलिस वाला पत्थर मारकर उसे फोड़ देता और वह स्वाधीनता सेनानी गंदगी से सराबोर हो जाया करता था। प्रेमनाथ की बहन कृष्णा का विवाह राजकपूर से हुआ था, इस तरह नाथ परिवार एक बड़े फिल्मी परिवार का हिस्सेदार हो गया था। बाईस साल की उम्र में 1948 में प्रेमनाथ ने बंबई का रुख किया और फिल्म ‘अजीत’ से अपनी पारी की शुरुआत की थी। उन्होंने कोई 100 से भी ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया, तीन फिल्मफेयर पुरस्कारों के लिए नामांकित हुए और 1985 में अभिनय कर्म से छुट्टी पा ली। प्रेमनाथ ने अपने किस्म की अभिनय शैली विकसित की थी। परदे पर उनकी उपस्थिति दर्शकों का ध्यान खींचती थी। वे नायक, सहनायक और खलनायक भी हुए, पर उन्होंने अपने हर किरदार को मौलिकता से दमदार बनाने की कला को कभी भी बिसराया नहीं। उन्होंने मधुबाला से प्रेम किया था और बीना राय से प्रेम और विवाह। अभिनेता राजेंद्रनाथ और नरेंद्रनाथ उनके भाई थे। प्रेमकृष्ण बेटा है, जिनकी ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’ फिल्म हिट हुई थी और जबलपुर के एम्पायर थिएटर में ही प्रदर्शित की गई थी। प्रेमनाथ में कला के प्रति जितना रुझान था, उससे कहीं ज्यादा वे अध्यात्म की ओर खिंचे हुए थे। जब उनके फिल्मी कैरियर में नरमी वाला वक़्त आया था, तब वे 1950 के दशक में तिब्बत की कैलाश पर्वत श्रृंखला पर चले गए थे और वहां एकांतवासी हो गए थे। वे फिल्मों में दूसरी पारी के लिए फिल्म ‘जानी मेरा नाम’ में लौटे और उन्होंने दोबारा अपनी अभिनय कला के झंडे फहराए थे। आग और बरसात जैसी फिल्मों के अलावा उनकी यादगार फिल्में हैं, तेरे मेरे सपने, शोर, बॉबी, रोटी कपड़ा और मकान, धर्मात्मा, कालीचरण, क्रोधी और देश प्रेमी।जबलपुर कभी उनके मन से विलग नहीं हो पाया। वे जबलपुर आना-जाना करते रहते थे। नर्मदा तट पर उन्होंने प्रेमानंद पुरी महाराज के सानिध्य में रह कर, प्रेमानंद आश्रम के निकट ही अपने लिए कुटिया बनवाई थी। जब वे जबलपुर आते तो उनके चाहने वाले उनसे मिलते, गपियाते, अध्यात्म की चर्चाएं होतीं और उनके खुले दिल वाले अंदाज का लुत्फ उठाया करते थे। ‘साला मुंशिपाल्टी ‘ उनका तकिया कलाम हुआ करता था। जिस पर नाराज हो जाते, उसे इसी उपाधि से नवाजते। पार्टियां करना, नाचना-गाना और मस्त रहना उनके स्वभाव का हिस्सा था। 3 नवंबर 1992 को उनका निधन हो गया। पर जबलपुर उन्हें आज भी अपने बीच ही महसूस करता है। वे भी जबलपुर को नहीं भूले होंगे।


Author: Jai Lok
