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परमात्मा ही जगत् के रूप में अभिव्यक्त हुआ है

अद्भुत बात है कि जो इन्द्रियों से जानने में आता है वह परिवर्तनशील है, नष्ट होता है इसलिए असत् है और जो इन्द्रियों की क्षमता से परे अस्तित्व है वह अविनाशी, अपरिवर्तनशील व नित्य है वही सत् है।
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक
‘ गीता को जानें’ लेखमाला- (22)

जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने की शिक्षा देने के बाद भगवान् आगे कहते हैं ‘हे पुरुष श्रेष्ठ ! दु:ख-सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह अमरत्व पाने के योग्य होता है (2.15)’। भगवान् अमृतत्व (मोक्ष) को प्राप्त करने के योग्य अधिकारी के लक्षण बता रहे हैं। केवल प्रारब्ध या इच्छा से जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिए पात्रता पैदा करनी होगी। यह पात्रता है – जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को समान समझना व उनसे व्याकुल न होना। जो अपने यथार्थ स्वरूप को न जानकर संसार में ही आसक्त रहता है, इन्द्रियों तथा उनके विषयों में ही सुखी-दु:खी होता रहता है वह अमृतत्त्व को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता। वह संसार को ही अंतिम सत्य समझता है इसलिए पग-पग पर डरता है। व्यापार में घाटा हो, परीक्षा हो, स्वजन बीमार हो जाए तो डर जाता है। उसे लगता है जैसे जीवन समाप्त हो जाएगा। दु:ख-सुख आना-जाना ही जीवित होने की पहचान है अन्यथा मुर्दे को तो न दु:ख होता है न प्रसन्नता। गीता कहती है ऐसे समय धैर्य रखना है मन को संतुलित रखना है इससे भय से मुक्ति मिलेगी। यह अमरता की व्यवहारिक व्याख्या है। अमरता की तात्त्विक व्याख्या यह है कि मन की समता बनाए रखने से आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है। आत्मा अमर है और उसकी अनुभूति होने पर यह पता चलता है कि हम शरीर नहीं हैं वरन वही अमर आत्मा हैं। तब मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। यही अमरत्व है।
सैद्धांतिक रूप से यह ठीक है पर इसे करें कैसे इसका उत्तर है कि पहले संसार के छोटे-छोटे दु:ख-सुख में इस स्थिति के लिए मन को प्रशिक्षित करना शुरू करें। छोटा सा सुख मिला, सम्मान मिला तो खुशी से बावले न हो जाएँ। छोटा सा दु:ख आया तो उसी को लेकर पूरे समय कोसने न लग जाएँ। अर्थात् मन को काबू में रखें ताकि बुद्धि उस परिस्थिति में भी सही विचार कर सके और चित्त में विचलन न हो। मन को धीरे-धीरे इसकी आदत पड़ती जाएगी तो संसार के बड़े-बड़े दु:ख-सुख में भी वह व्यक्ति धैर्य रख पाएगा। बाहरी दबावों और जीवन के उतार चढ़ाव को झेलने की यह क्षमता स्वयं विकसित करना होगी। गीता के अनुसार मन को संतुलित रखना बहुत बड़ी साधना है। इस साधना के फलस्वरूप जब संसार परमात्मा का रूप दिखने लगता है तो दु:ख-सुख भी परमात्मा का रूप दिखाई देने लगते हैं और उनकी स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती है। हमारे अंदर बैठा चेतन जब अपना संबंध प्रकृति से जोड़ लेता है अर्थात् शरीर, धन, परिवार आदि को अपना मान लेता है तब वह सुख-दुख को भोगने के लिए विवश हो जाता है। जब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है तब भोगनेवाला नहीं बचता और सुख-दुख में समता आ जाती है। अब भगवान् ऐसा रहस्य उद्घाटित करते हैं जिसे स्वीकार करना कठिन लगता है। भगवान् कहते हैं – ‘असत् की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। वास्तव में, इन दोनों का ही तत्त्व, तत्त्वज्ञानियों द्वारा जाना गया है (2.16)’। जब हमारे ऋषियों, मनीषियों ने ध्यान की अवस्था में अनुभव किया (श्वेताश्वर उप.) तो उन्हें जगत् के दो पहलू मिले – प्रथम अवास्तविक या मिथ्या जिसका अस्तित्व प्रारंभ में नहीं था, अंत में भी नहीं रहेगा केवल मध्य में भासित हुआ अर्थात् वह सतत् परिवर्तनशील है। दूसरा वास्तविक जिसका अस्तित्व भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में एक सा रहता है। उन्होंने प्रथम को नाम दिया असत् और दूसरे को सत्। इन दोनों के गुणधर्म परस्पर भिन्न हैं। अद्भुत बात है कि जो इन्द्रियों से जानने में आता है वह परिवर्तनशील है, नष्ट होता है इसलिए असत् है और जो इन्द्रियों की क्षमता से परे अस्तित्व है वह अविनाशी, अपरिवर्तनशील व नित्य है वही सत् है। संसार की सारी वस्तुओं और पदार्थों (शरीर, मकान, भोजन, वृक्ष, पत्थर, नदी, चाँद, तारे आदि) जिन्हें हम पाँच ज्ञानेन्द्रियों से – सुनकर, छूकर, देखकर, चखकर और सूँघकर जानते हैं वह सभी असत् हैं। हमारा शरीर जन्म के पहले नहीं था और मृत्यु के बाद भी नहीं रहेगा और अभी भी प्रतिक्षण विनाश की ओर जा रहा है। सूर्य का भी जन्म लगभग 500 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ और इतनी ही अवधि के बाद यह नष्ट हो जाएगा। इसी तरह संसार की सभी वस्तुओं पर विचार करें। हम पाएँगे कि प्रत्येक वस्तु का एक समय अस्तित्व नहीं था फिर इनके अस्तित्व की प्रतीति हुई और एक समय के बाद यह गायब हो जाएँगे। सभी परिवर्तन किसी स्थाई अधिष्ठान के विरुद्ध ही होते हैं। वाहन सडक़ पर चलता है (स्थान परिवर्तित करना है) क्योंकि सडक़ स्थिर है। जगत् के इस स्थाई अधिष्ठान की खोज तत्त्वदर्शियों ने की और इसे सत् नाम दिया। असत् के विपरीत यह सत् तत्त्व सदा विद्यमान है। सत् ही वह अनन्त, कभी नष्ट न होने वाली वास्तविकता है जिसकी प्रकृति शुद्ध चैतन्य है। यह जगत् सत् से आया है, उसी में स्थित रहता है और अंत में उसी में लय हो जाता है। सत् की सत्ता से ही असत् की प्रतीति होती है। जैसे समुद्र के जल का स्पन्दन लहर है। जल के कारण ही लहर प्रतीत हो रही है। इसी तरह सत् का क्षणिक स्पन्दन असत् है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि केवल सत् तत्त्व ही सदैव विद्यमान है, असत् की कोई सत्ता नहीं है, उसका सदैव अभाव है। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् (असत्), परमात्मा (सत्) की ही अभिव्यक्ति है।एक व्यक्ति अंधेरे में वृक्ष के ठूँठ को भूत समझकर भयभीत हो गया। प्रकाश होने पर पता चला कि यह तो ठूँठ है। वेदांत की भाषा में कहते हैं कि भूत का अस्तित्त्व नहीं था परंतु वह ठूँठ पर अध्यस्त था अर्थात् प्रतीत हो रहा था। जैसे ही ज्ञान हुआ वैसे ही भूत की सत्ता समाप्त हो गई, सारा भय समाप्त हो गया और ठूँठ बचा। इसी तरह संसार भी ब्रह्म पर अध्यस्त है। इसलिए ज्ञान होने पर संसार (असत्) की सत्ता समाप्त हो जाती है और सब कुछ परमात्मा (सत्) का रूप दिखाई देने लगता है। किसी से कहा जाए कि भूत नहीं है वह तो ठूँठ है इससे उसे भय दूर नहीं होगा क्योंकि भूत होने की बात उसके अंदर तक पैठी है। भय तभी दूर होगा जब वह प्रकाश में ठूँठ को देख लेगा। हमारे मन में भी जन्म-जन्मांतरों के संस्कारों के फलस्वरूप संसार के सत् होने की बात पैठी है। शास्त्र बताते हैं कि सत् क्या है, असत् क्या है। शास्त्र असत् की निवृत्ति कराते हैं, वह संसार के अनित्य और नश्वर स्वरूप की जानकारी देते हैं परंतु शास्त्र भी सत् अर्थात् परमात्मा का दर्शन नहीं करा सकते। उसके लिए तो स्वयं ही प्रयास करना होगा। (क्रमश:)।

लोकार्पण तो हुआ नहीं, गर्मी में ठंडे पानी की राहत लेकर लौट आये काँग्रेसी

 

Jai Lok
Author: Jai Lok

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