
नरसिंहपुर (जयलोक)। द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वामी सदानंद सरसवती ने कहा कि कैकयी के वरदान मांगने पर दशरथ जी के पास कोई उपाय नहीं है राम जी संकेत समझ गए एक बुद्धि होती है, एक विवेक होता है, राम ने विवेक का प्रयोग किया, और कहा मैं पिता की आज्ञा का पालन करूंगा । एक वृक्ष पर दो हैं पक्षी, एक भोगे एक रहे अलक्षी ।
अर्थात् हम अज्ञान से जो अपने को देह मान रहे हैं, उसे दूर करना है, वही राम जी ने विवेक से समझकर निर्णय लिया । हमारे अंदर अपूर्व ज्ञान है वह श्रद्धा-भक्ति-विश्वास और गुरु के द्वारा प्रकाशित होती है ।
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ।।
प्रभु श्रीराम जी कौशल्या के पास गये और कहा माताजी में आसन पर क्या बैठूँ मुझे दंडकारण्य वन जाना है । क्यों ? तुम्हारा राज्याभिषेक है । श्रीराम ने कहा, नहीं मुझे पिता की आज्ञानुसार अब वन को जाना है –
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू । जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू ।।
वचन विनीत मधुर रघुवर के । सर सम लगे मातु उर करके ।।
राम के विनीत वचन भी कौशल्या को बाण के समान लगे वह मूर्छित हो गई । राम जी ने बहुत समझाया कौशल्या ने कहा इससे अच्छा या तो तू मेरे अंदर से जन्म ना लेता या मैं बांझ रह जाती ।

उसी समय लक्ष्मण जी आए, कहा मैं अपने बाण से सब कुछ नष्ट कर दूंगा । ‘बहुत संवाद है’ अंत में माँ ने समझ लिया कि यह नहीं मानेंगे वन जाएंगे श्रीराम ने कहा मेरे पिता देव तुल्य हैं, मैं उनकी आज्ञा नहीं टाल सकता, क्योंकि माता-पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए, फिर मुझे तो माता-पिता दोनों की आज्ञा है ।मैं प्रतिज्ञा पूरी करके आऊंगा और आपकी हर आज्ञा का पालन करूँगा । लक्ष्मण के क्रोध को देखकर राम ने कहा यह क्रोध का समय नहीं है । जो प्राप्त है उसका उल्लंघन देवता भी नहीं कर सकते, कौशल्या ने कहा यहां रहूंगी तो तुम्हारे बिना जल जाऊंगी । मैं तुम्हारे साथ पीछे-पीछे चलूंगी । राम ने कहा सेवा ही स्त्री का सनातन धर्म है आप उनकी सेवा करें । पत्नी के बिना पति धर्मानुष्ठान नहीं कर सकता, पति पत्नी के बिना पाप कर सकता है, पर पुण्यार्जन नहीं कर सकता है ।
कौशल्या ने तिलक लगाकर सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया तुम जिस धर्म का पालन करने जा रहे हो वह धर्म तुम्हारी रक्षा करे, सकुशल लौट कर आना ।
कवच अभेद विप्र गुर पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा ।।
तुमने अपने गुरु वशिष्ठ विश्वामित्र आदि की सेवा कर अस्त्र-शस्त्रादि प्राप्त किये हैं उनका समय-समय पर उपयोग कर अपनी रक्षा करते हुए सकुशल लौटना ।
राम जी सीता जी के महल की ओर गये, सीता जी को यही पता था कि राज्याभिषेक के लिए लेने आ रहे हैं । राम ने नीचे सर करके महल में प्रवेश किया सीता का हृदय काँप गया, कहा आज क्या बात है ? भगवान श्रीराम ने माता सीता से कहा कि माता कैकयी ने अपने दो वरदान पिता श्री से मांग लिए हैं पहला भारत का राज्याभिषेक और दूसरा मेरा वनवास 14 वर्ष तक ।

तुम अपने माता-पिता, भरत आदि को अपनी किसी भी बात से कस्ट मत पहुंचाना, सीता जी ने कहा आप कैसी बात कर रहे हैं ? माता-पिता, सास ससुर, भाई बहन सब अपने भाग्य को भोगते हैं, पर पत्नी तो पति के अधीन है उसका अर्थात् पत्नी पति का ही भाग्य भोगती है । आपको आज्ञा हुई तो मुझे भी अपने आप आज्ञा हो गई मैं भी चलूंगी । राम जी ने कहा कोमल चरणों से वन में कैसे चलोगी ? कहा आप कैसे चलेंगे वैसे ही मैं चलूंगी, क्या आप रामायण झूठी कर देंगे ? मेरी माता ने रामायण में बताया था की सीता भी राम के साथ वन गयी थी यह बचपन में मैंने अपनी मां से रामायण में सुना है । आप क्या समझे कहना होगा राम अनादि अनूप हैं ।राम ने सीता को विकल देखकर कहा मैं तुम्हें ले तो नहीं जाना चाहता था, पर तुम्हारे दु:ख को देख नहीं सकता अर्थात तुम भी चलो । लक्ष्मण जी यह वार्तालाप सुनकर समझ गये कि मुझे नहीं ले जा रहे हैं, कहा मैं भी चलूंगा राम के बहुत समझाने पर भी लक्ष्मण नहीं माने ।
राम ने कहा अपनी मां सुमित्रा को प्रणाम कर सभी सुहृदों से मिलकर आओ । सुमित्रा जी ने कहा राम वन में जा रहे हैं तो तुम्हारा महल में क्या काम है । वशिष्ठ जी सुयोज्ञ गुरु पुत्र को बुलाते हैं, वह और गुरु माता वस्त्र आदि देते हैं । फिर अगस्त्य जी और ब्राह्मणों को और दीन-दुखियों को अपने खजाने खोल दिए और सब बांट दिया । दान और दया में अंतर है –
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ।।
Author: Jai Lok







