
जबलपुर (जयलोक)। सोशल पुलिसिंग क्या है, यह बात पुलिस ही भूल चुकी है, नतीजा यह है कि आमजन से पुलिस की दूरी हो रही है, अपराधिक तत्व पुलिस के करीब जा रहे हैं। अपराध में लगाम लगने के बजाए बढ़ रहे हैं, अपराधी समाज का सहयोग नहीं मिलने की वजह से शिकंजे में नहीं आ रहे हैं। तो दूसरी तरफ नेताओं, वकीलों, व्यापारी संगठनों से पुलिस थाना स्तर के अधिकारियों कर्मचारियों की दूरी बढ़ रही है। बीते दिनों पुलिस और वकीलों का विवाद अभी शांत नहीं हुआ था कि एक हफ्ते में ऐसी कई घटनाएं सामने आईं जिसकी वजह से विवाद की स्थिति बनी। यह घटना और बीते कई महीने में जिस तरह की घटनाएं और विवाद पुलिस कर्मियों और आम शहरवासियों के बीच हुये हैं, वो चिंता का विषय है क्योंकि पुलिस का अपराधिक तत्वों के साथ विवाद समझ आता है, लेकिन वकीलों, व्यापारियों, पार्टी प्रतिनिधियों, समाजसेवियों के साथ बार बार होता विवाद समझ से परे है।

क्या है सोशल पुलिसिंग
जनता और पुलिस के बीच समन्वय बनाने का काम स्थानीय थाने का होता है, पहले लोकल थाने में ऐसे अधिकारी नियुक्त किये जाते थे, जिनका आमजन के बीच संवाद अच्छा हो, जो आमजन को साथ लेकर और समझ कर चलते थे। विशेषकर संवेदनशील और व्यापारिक क्षेत्र वाले थानों में जिनमें कोतवाली, लार्डगंज, ओमती, हनुमानताल गोहलपुर प्रमुख हैं, इनमें जमीनी अमला होता था। जो स्थानीय जनों से भाई, चाचा, दादा का रिश्ता बनाता था। जिसके नतीजे में बड़े से बड़े मामले आपसी सदभाव से हल हो जाते थे। लेकिन अब जैसे जैसे पुलिस की कार्यशैली बदल रही है, सोशल पुलिसिंग की जगह मनमानी और आदेश थोपने जैसी प्रवृत्ति बढ़ रही है। इससे पुलिस और जनता के बीच की दूरी बढ़ रही है, नतीजा बढ़ते अपराध और बढ़ते विवाद के रूप मे सामने आ रहा है।

Author: Jai Lok
