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प्रो.सुरेंद्र वर्मा आर्य : परम विद्वता और सरलता के उपमान

राजेंद्र चंद्रकांत राय, जयलोक

प्रो सुरेंद्र वर्मा आर्य का जन्म बरवान गाँव, जिला हरदोई (यूपी) में हुआ था और उनकी प्रारंभिक शिक्षा बनारस और उसके आसपास के स्थानों में हुई। उन्होंने कम उम्र से ही अपनी मेधा का परिचय दे दिया था। इंटरमीडिएट स्कूल परीक्षा में वे राज्य स्तर की मेरिट सूची में दूसरे स्थान पर रहे थे। उनके पिता शिक्षक थे और आर्य समाज के दर्शन के सामाजिक पहलुओं के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। वे छुआछूत को दूर करने और समाज द्वारा विधवा विवाह को स्वीकार करने के लिए निरंतर सक्रिय रहा करते थे। नौजवान सुरेंद्र बाबू के लिए ये आर्य समाजी चर्चाएँ ईश्वर, आत्मा और प्रकृति के पहलुओं को जानने-समझने के लिए बीज बनीं। बाद में इलाहाबाद में और अमेरिका में अपने उच्च अध्ययन के दौरान वे ईसाई धर्म के संपर्क में भी आए और उसके बारे में भी बहुत कुछ जाना।
प्रो सुरेंद्र वर्मा आर्य से मेरी पहली मुलाक़ात साल 1979 में तब हुई थी, जब वे जबलपुर में कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय में डीन पद पर थे। मैं उनसे मिलने उनके बंगलानुमा घर पर गया था और उनके सममोहन में पड़ गया था। वे अपने इंजीनियरिंग विषयों के उद्भट विद्वान तो थे ही, ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी उनका आधिकारिक दखल था। स्वभाव से वे वैज्ञानिक थे और मन से आस्थावादी। पिता के आर्य समाजी होने के चलते पहले वे भी अनास्थावादी थे। पर बाद में वे अवतार मेहेर बाबा के प्रति आकर्षित हुए और उन पर अटूट आस्था रखने लगे थे। वे उन्हें अलौकिक पुरुष का दर्जा देते थे। खूब बतियाना और सबके साथ सहजता से घुल-मिल जाना उनके व्यक्तित्व का खास तत्व था। जाने-अंजाने लोगों के साथ भी दोस्ताना व्यवहार करने वाले अप्रतिम व्यक्ति थे। सेवानिवृत्ति के बाद जब वे आधारताल के आलोक नगर में रहने लगे थे, तब अपरान्हकाल में घर के बाहर कुर्सी डालकर बैठ जाया करते थे और रास्ते से निकलने वालों का अपनी तरफ से हालचाल लेने से गुरेज नहीं करते थे। वह कोई बच्चा हो सकता था। कोई आदमी हो सकता था और वह कोई स्त्री भी हो सकती थी। आरंभ में ऐसे अंजान लोग जरा असमंजस में पड़ जाया करते थे, परंतु उनकी लोगों से मिलने की व्यापकता को पहचानकर उनके मित्र हो जाया करते थे। इस तरह वे स्वयं भी एक अलौकिक व्यक्तित्व के स्वामी थे।
उन्हें सिक्कों को जमा करने का शौक था। वे सिक्कों के इतिहास और उनकी विशेषताओं के बारे में जानने वाले वैश्विक ज्ञाता थे। उन्हें संसार में सिक्कों के ज्ञाता के तौर पर दूसरा स्थान प्राप्त था, पहले क्रम पर बंगला देश के कोई सज्जन थे। अपना मकान बनवाने के लिए उन्हें जब रुपये जुटाने पड़े थे, तब उन्होंने अपने अनोखे सिक्कों का संग्रह तीन लाख रुपयों में बेच दिया था।
वे ईमानदार, भले और सच्चे अर्थों में शिक्ष्क थे। एक बार हुआ यह कि मैं उनके पास उनके कुलपति वाले दफ्तर में बैठा था। संध्याकाल के पाँच से भी ज्यादा बज गए थे और पूरा विश्वविद्यालय खाली हो चुका था। उन्होंने कहा कि चलो अब घर चलते हैं। हम लोग सीढिय़ों से उतरे तो देखा कि सभी कमरों के पंखे चल रहे हैं और बिजली भी रोशन है। वे हर कमरे के स्विच ऑफ करते हुए आगे बढ़ते रहे। उन्होंने कोई बीस कमरों की बिजली ऑफ की होगी। इस तरह व्यर्थ में उर्जा की बरबादी कैसे रोकी जा सकती है, यह मैंने उस दिन जाना था।
1981 में वे जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति चुने गए थे। उनके चुने जाने के समय की भी एक दिलचस्प घटना है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शोरी ने एक आलेख लिखा कि जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप् में किन्हीं प्रो अटवाल का चुना जाना निश्चित है, क्योंकि उनकी पत्नी श्रीमती अटवाल प्रधान मंत्री श्रीमती गांधी की मित्रता में हैं। इत्तफाक से राजेंद्र माथुर के संपाकत्व में निकलने वाले नई दुनिया इंदौर पत्र में मेरा भी आलेख उसी दिन प्रकाशित हुआ था, जिसमें मैंने अनेक कारणों के साथ यह भी लिखा था, कि प्रो आर्य जैसे स्थानीय विद्वान को कुलपति बनाया जा सकता है। बाद में वे कुलपति हुए। कुलपति के रूप में वह पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाले वे पहले व्यक्ति भी कहलाए। उसके बाद वे मुझे देखते ही अक्सर परिहास में कहा करते थे कि देखो किंग मेकर चले आ रहे हैं।
वे उत्तम कोटि के वक्ता और प्रवचनकर्ता भी थे। उनके पास उच्चकोटि की परिहास वृत्ति भी थी। यह एक दुर्लभ गुण है। मनुष्य को जड़ हो जाने से बचाए रखने वाला गुण। एक बार विश्विद्यालय में अखिल भारतीय स्तर पर कृषि वैज्ञानिकों की गोष्ठी का आयोजन हुआ। मैं श्रोता के तौर पर उपस्थित था। उन्होंने अपना लंबा किंतु गरिमामय और विज्ञान सम्मत उद्घाटन भाषण दिया, जिसकी खूब सराहना हुई। आखीर में उन्होंने कहा कि आप सब लोग जबलपुर आए हैं तो यहाँ की दो प्रसिद्ध चीजों को जरूर देखें, एक तो मैं खुद हूं जिसे आप देख ही चुके हैं और दूसरा है घुआंधार जल प्रपात। इस पर उस दिन क्या ठहाके लगे थे कि उनकी गूंज अब भी कानों में बाकी है।  विख्यात कवि अज्ञेय जी जब अपनी वत्सल निधि यात्रा पर जबलपुर आए थे, तब उन्हें सुरेंद्र बाबू ने विवि में आमंत्रित किया था और हम लोगों ने उनके विचार सुने थे। उर्दू साहित्य से भी उन्हें लगाव था। उनकी डायरी में सैकड़ों शेर दर्ज थे। उन्होंने परवरदिगार और पश्चाताप नामक प्रार्थनाएँ भी  लिखी हैं।
वे अब संसार में नहीं हैं। उनके चाहने वालों के जीवन का सबसे मनोरम हिस्सा जा चुका है।
प्रणाम प्रो आर्य!
प्रणाम जबलपुर!!

 

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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