
दैनिक जयलोक – प्रणाम जबलपुर
जबलपुर, (जयलोक )। जबलपुर कभी अखाड़ों और पहलवानों का नगर हुआ करता था। जो कुश्तियाँ नहीं लडऩा चाहते थे, वे भी अखाड़े जाते थे और कसरत करके अपने शरीर को मजबूत और सौष्ठवयुक्त बनाने में रुचि रखते थे। संपन्न और रुचिवान जन अखाड़ों, कुओं, बावडिय़ों और बगीचों आदि का परोपकार की भावना से निर्माण कराते थे। पहलवानों के खान-पान के लिए योगदान करते थे। धीरे-धीरे यह हुआ कि पहलवानी और कसरत का आकर्षण घटता गया और उनके साथ अखाड़े भी निष्प्रभ होते चले गए। ऐसा दौर भी आया, जब पहलवानी को बुद्धिहीनता का पर्याय मानने का चलन हुआ। अब भी जबलपुर में गिनती के जो अखाड़े बचे रह गए हैं, उनमें फकीरचंद का अखाड़ा सबसे ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त अखाड़ा है। यह कोतवाली थाने के पास स्थित है और बाहर से मंदिर जैसा ही प्रतीत होता है। इसका नामाकरण फकीरचंद उस्ताद के नाम पर किया गया है। लगभग दो-तीन सौ साल पहले निर्मित यह अखाड़ा अब हमारी विरासत भी बन चुका है। इसमें जगन्नाथ मंदिर है, जिसमें शिव जी की प्रतिमा है। इसके अलावा भी कल्चुरी काल की बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएं हैं, जो मंदिर परिसर में ही इधर-उधर बिखरी हुई हैं। अखाड़ा परिसर में कल्चुरी काल का ही एक तांत्रिक मंदिर भी है। दीवारों में शिवलिंग मंडित हैं। इसके अलावा गौरीशंकर, कामख्या देवी व अन्य देवी देवताओं की संगमरमर से बनी मूर्तियां भी हैं। अखाड़े में दो ऐसे प्राचीन शिलालेख भी मौजूद हैं, जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इनमें से एक रानी दुर्गावती के समय का है।
राजा मदनशाह की मूर्ति और तिब्बती लामा की मूर्ति प्राचीन कालीन है। हनुमान प्रतिमा के समक्ष जैन धर्म के तीर्थंकर पार्श्वनाथ, आदिनाथ व महावीर स्वामी की प्रतिमाएं हैं। अखाड़े के पास रुद्र यंत्र है और जैन तीर्थंकरों की कल्चुरी कालीन प्रतिमाएं भी है। पुरातत्व विभाग से जुड़े लोगों का मानना है कि अखाड़े में रानी दुर्गावती के पति राजा दलपतिशाह का शिलालेख है, परंतु शिलालेख की लिपि को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। फकीरचंद उस्ताद का जन्म 1839 में हुआ था। बकसराम शुक्ल के इस तीसरे पुत्र का मूल नाम फकीरचंद शुक्ल था। शुक्ल परिवार फतेहपुर से अपनी आजीविका की खोज करता हुआ जबलपुर आया था और फिर जबलपुर ही उनकी अपनी नगरी बन गई। फकीरचंद जी अपने समय के जुनून पहलवानी और मल्लविद्या के दीवाने थे। इसके चलते ही उन्होंने पहलवानी को प्रोत्साहित किया था। इस अखाड़े के आखिरी गुरु फकीरचंद उस्ताद ही हुए। उनके बाद किसी और को अखाड़े का गुरु नहीं बनाया गया। अखाड़े में उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई है और प्रतिदिन उसका पूजन किया जाता है। उन्होंने आयुर्वेद का भी गहरा अध्ययन करके चिकित्सा के क्षेत्र में सुयश भी प्राप्त कर लिया था। उनके पास दूर-दूर से मरीज आते थे और अपनी चिकित्सा कराते थे। उनके मुरीद मरीजों में नवाबों और राजाओं के घराने के लोग भी हुआ करते थे। फकीरचंद जी के एक अभिन्न मित्र हुआ करते थे, नारायण शीतल प्रसाद कायस्थ। वे कविता करते थे। उन्होंने फकीरचंद जी के जीवन पर एक छंदबद्ध ग्रंथ ‘फकीरचंद सुयश सागर’ का प्रणयन किया था। उनका एक पद इस प्रकार है-
ऐसो यसी जीव जाहर जक्त में न कोई भयो,
जैसो उस्ताद के प्रताप को बखान है।
जिसने सहस्रन के महारोग नीके किए,
दियो दिन राज जिन दवा द्रव्य दान है।
सबको मान राखनहार सदा ही प्रसन्नचित्त,
स्वप्न में नारायण ना जिनके अभियान है।
जहर जहान हैं कायम निशान हैं,
आयो विमान कियो स्वर्ग को पयान है।
उन्होंने अखाड़े के निरंतर संचालन और प्रबंधन के लिए एक वसीयत भी कर दी थी, जिसमें जबलपुर के पाँच सुनामी शख्सियतों को इस काम के लिए जिममेदारी सौंपी गई थी, वे थे सेठ मनमोहन अग्रवाल, गुलाबचंद चौधरी, मुंशी लाला उदयकरण, सवाई सिंघई नत्थूलाल और ठाकुर भूपत कुंवर। अखाड़े के प्रबंधन के लिए अनेक लोगों ने अपना योगदान किया था। केशवलाल दौलतराम मालगुजार ने झिलमिली गाँव में भूमि प्रदान की थी। बड़वारा गढी के मालगुजार लाल ने जमीन दी थी। मदार टेकरी, और गोहलपुर जबलपुर में स्थित अमरूद के एक-एक बाग प्रदान किए गए थे। मिलौनीगंज और हनुमानताल में स्थित एक-एक मकान, राजा सलैया द्वारा प्रतिवर्ष पचास रुपए का दिया जाने वाला दान, अखाड़े के भोजनादि बनाने के काम आने वाले बर्तन, कई तरह के आभूषण, एक अन्य दो मंजिला मकान। फकीरचंद जी अब नहीं हैं, किंतु उनका यश अब भी बना हुआ है। समाज के पक्ष में किए जाने वाले योगदानों से ही कीर्ति अक्षय होती है। जबलपुर उन्हें भुलाने को तैयार नहीं है। अखाड़े के जरिए उन्हें रह-रहकर याद करता है। 68 साल की आयु में उनका निधन सन् 1907 में हुआ।

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Author: Jai Lok







