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बिरसा मुंडा का उलगुलान और आदिवासियों के समक्ष वर्तमान की चुनौतियाँ आज शहादत दिवस पर विशेष

 कुमार कृष्णन
धरती आबा बिरसा मुंडा का उलगुलान भूमि से लेकर धर्म सम्बन्धी तमाम समस्याओं के खिलाफ जनसंघर्ष था तथा उन समस्याओं के खिलाफ राजनीतिक समाधान का प्रयास भी। वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आंतरिक बुराईयों और कमजोरियों को दूर करने का सामूहिक अभियान भी था। समाज की परंपरागत प्रकृति निर्भर तत्व ने आर्थिक समाजवाद की अवधारणा को बिरसा के अंदर जागृम किया । गांधी से पहले गांधी की अवधारणा के तत्व के उभार के पीछे भी बिरसा का समाज एवं पड़ोस के सूक्ष्म अवलोकन एवं उसे नयी अतंर्दृष्टि देने का तत्व ही था। तभी तो उन्होंने गांधी के समान समस्याओं को देखा.-सुना, फिर चिंतन-मनन किया। उन्होंने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जो प्रयास किया, वह अंग्रेजी हुकूमत के लिये विकराल चुनौती बनी। नये बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों कों नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता, आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। समस्या के कारणों को ढूढ़ ‘गोरों वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर वल दिया, ताकि शोषणमुक्त ‘ आदिम साम्यवाद ’ की स्थापना हो सके। उन्होंने कहा -‘महारानी राज जाएगा एवं अबुआ राज आएगा।
1857 के गदर शांत होने के बाद सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरू हो गया। 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित यह आंदोलन 1890 में राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, जब बिरसा मुंडा ने इसकी कमान संभाली। बिरसा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खूंटी जिले के अडक़ी प्रखंड के उलिहातु गांव में हुआ था। व्यक्तित्व निर्माण और तालीम ईसाई मिशनरियों के संरक्षण में हुई। स्कूली शिक्षा के दौरान बिरसा में विद्रोह के लक्षण प्रकट होने लगे। आदिवासियों में भूतकेता पहनाई आदि की परंपरा है। वे धार्मिक कृत्यों के लिये जमीन छोड़ते हैं। उस समय ईसाई पादरी उस जमीन पर मिशन का कब्जा करने की कोशिश करते थे।  बिरसा ने इसकी शिनाख्त ईसाई मिशनरियों और गोरों की साजिशों के रूप में की और इसकी वेबाक ढंग से आलोचना की, जिस कारण वे स्कूल से निकाल दिये गये। इसके बाद वे सरदार आंदोलन में शमिल हो गये। ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ 1890-91 से करीब पांच साल तक वैष्णव संत आनंद पांड से हिन्दुओं के वैष्णव पंथ के आचार का ज्ञान प्राप्त किय और व्यक्तिक तथा सामाजिक जीवन पर धर्म के प्रभाव का मनन किया। परंपरागत धर्म की ओर उनकी वापसी हुई और उन्होंने धर्मोपदेश देना तथा धर्माचरण का पाठ पढ़ाना शुरू किया । ईसाई धर्म छोडऩेवाले सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना । उनका धार्मिक अभियान प्रकारांतर से आदिवासियों को अंग्रेजी हुकूमत और ईसाई मिशनरियों के विरोध में संगठित होकर आबाज बुलंद करने को प्ररित करने लगा। उस दौर उनकी लोकप्रियता इस कदर परवान चढ़ी कि उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार अपनाने का उपदेश दिया और मुंडा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरितियों पर जमकर प्रहार किया । वह जनेउ, खड़ाउ और हल्दी रंग की धोती पहनने लगे। उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और वह है सिंगवोंगा। भूत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है।सार्थक जीवन के लिये सामिष भोजन अथवा मांस-मछली का त्याग करना जरूरी है। हडिय़ा पीना बंद करना होगा।
बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नई जान आ गयी। अगस्त 1895 में वन सम्बन्धी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व बिरसा ने किया। धर्मिक आधारों पर एकजूट बिरसइतो का संगठन जुझारू सेना की तरह मैदान मे उतर गया। बकाये की माफी के लिये उन्होंने चाईवासा तक की यात्रा की तथा रैयतों को एकजुट किया। अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा की मांग को ठुकरा दिया। बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि -‘ सरकार खत्म हो गयी। अब जंगल जमीन पर आदिवासियों का राज होगा। 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार विरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हे छुड़ा लिया।16 अगस्त 1895 को गिरफतार करने की योजना के साथ आये पुलिस वल को बिरसा के नेतृत्व में सुनियोजित ढ़ंग से घेरकर खदेड़ दिया।
इससे बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने 24 अगस्त 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस वल चलकद रवाना किया तथा रात के अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार  कर लिया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने के लिये उकसा रहे थे। मुंडा और कोल समाज ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। व्यापक विरोध के कारण मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया, लेकिन विरोध के तेवर में फर्क नहीं पडऩे के कारण मुकदमें की कार्रवाई रोककर तुरंत जेल भेज दिया गया। भा़दवि की धारा 505 के तहत मुकदमा चला तथा उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी। उन्हें रांची से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 1997 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा तथा चेचक की महामारी भी फैली। आदिवासी समाज बिरसा के नेतृत्व के अभाव में भी  दमन-शोषण, अकाल तथा महामारी से एकसाथ जूझता रहा।30 नवम्बर 1897 को बिरसा जेल से छुटे तथा चलकद लौटकर अकाल तथा महामारी से पीडि़त लोगों की सेवा में जुट गये। उनका यह कदम अपने अनुयायियों को संगठित करने का आधार बना। फरबरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की सभा में उन्होंने आंदोलन की नई नीति की घोषणा की तथा खोये राज्य की वापसी के लिये धर्म तथा शांति का  मार्ग अपनाने का आह्वान किया। उनके अभियान के तहत सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्ष को केन्द्र में रखकर आदिवासी समाज को मजबूत तथा संगठित करने का सिलसिला जारी रहा। 1889 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने, खोये राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिये व्यापक गोलवंदी ष्षुरू हुई। कोलेबिरा, बानो लोहरदग्गा, तोरपा, कर्रा, बसिया, खूंटी, मुरहु, बुंडु, तमाड़, पोड़ाहाट, सोनाहातु आदि स्थानों पर बैठक हुई।
24 दिसम्बर 1899 को रांची के तोरपा, खूंटी, तमाड़ बसिया, आदि से लेकर सिंहभूम जिला के चक्रधरपुर थाने तक में विद्रोह की आग भडक़ उठी विद्रोह के दमन के लिये सिहभूम से रांची तक 500 बर्गमील क्षेत्र में सेना और पुलिस की कम्पनी बुलाकर बिरसा की गिरफ्तारी का अभियान तेज किया गया। सरदारों पर हमला करने और आंदोलन का साथ देनेवालो मुंडा- मानकियों को गिरफ्तार करने व आत्मसमर्पण न करनेवाले विद्रोहियों की घर -सम्पत्ति कुर्क करने की योजना को अमलीजामा पहनाया जाने लगा। सरकार ने बिरसा की सूचना देनेवालों और गिरफ्तारी में मदद देनेवालों मुंडा या मानकी को पांच सौ रुपयें पुरस्कार देने का ऐलान किया। बावजूद इसके बिरसा को गिरफ्तार नहीं कर पायी। बिरसा ने आंदोलन की रणनीति बदली, साठ स्थानों पर संगठन के केन्द्र बने। डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक में‘उलगुलान ’ का ऐलान किया गया।

 

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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