
जबलपुर (जयलोक)। ढाई दशक पहले जबलपुर में आए भूकंप की याद आज भी लोगों के जहन में ताजा है, 22 मई 1997 को आए विनाशकारी भूकंप ने पूरे जबलपुर को दहला दिया था। इस त्रासदी को झेले हुए 28 साल बीतने वाले हैं, लेकिन इसका दर्द और तबाही का वह मंजर लोगों के जहन में अब भी ताजा है। भूकंप के लिहाज से जबलपुर को संवेदनशील माना जाता है, बावजूद इसके भवन निर्माण के क्षेत्र में भूकंप रोधी तकनीकों को अपनाने में उदासीनता बरती जा रही है। सिविल इंजीनियरिंग के जानकार इसे चिंता का विषय मानते हैं।

जबलपुर में भूकंप त्रासदी के 28 साल पूरे हुए
जबलपुर में आया था भयानक भूकंप: 22 मई 1997 का दिन आज भी जबलपुर के लोगों के दिलों में ताजा है। तडक़े 4 बजकर 22 मिनट पर जबलपुर की धरती कुछ इस तरह से कांपी कि करीब 41 लोगों की यहां मौत हो गई, तो वहीं एक हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए। करीब 500 करोड़ का नुकसान भी हुआ था। जबलपुर को भूकंप संवेदी क्षेत्र माना जाता है, यानी इस क्षेत्र में भूकंप के आने की संभावना हमेशा बनी रहती है। रात 4 बजकर 22 मिनट पर आए इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6.0 मापी गई थी। इसका केंद्र बरेला के निकट कोशमघाट क्षेत्र में था, लेकिन आधे से ज्यादा जबलपुर प्रभावित हुआ। भूकंप के झटके इतने तेज थे कि लोग नींद से घबराकर बाहर निकल आए। उस रात की दहशत आज भी कई लोगों के जेहन में ताजा है।
भवन निर्माण में नहीं हो रहा रजिस्टेंस स्ट्रक्चर का पालन
22 मई 1997 को आए विनाशकारी भूकंप के बाद लगातार इस बात पर चर्चा हो रही है कि भवन निर्माण में भूकंप रोधी तकनीक का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन इस मामले में लगातार उदासीनता बरती जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड के मापदंडों को अपनाकर भवन निर्माण में रजिस्टेंस स्ट्रक्चर का पालन किया जाए। इसके साथ ही भवन निर्माण में फ्रेंड स्ट्रक्चर की तकनीक को अपनाकर भूकंप जैसी आपदाओं में जानमाल की हानि को कम किया जा सकता है।

887 गाँवों में आई थी तबाही
भूविज्ञानी और आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. वी सुब्रमण्यन के अनुसार यह भूकंप नर्मदा फॉल्ट पर हलचल का परिणाम था। इस आपदा की वजह से मध्य प्रदेश के जबलपुर और मंडला जिले सर्वाधिक प्रभावित हुए थे। हालांकि सिवनी और छिंदवाड़ा में भी इसका खूब असर देखा गया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस घटना में कुल 887 गांव प्रभावित हुए थे। वहीं कुल 8,500 मकान पूरी तरह ढह गए। इसी प्रकार 52 हजार से अधिक मकान आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए थे। सबसे ज्यादा खराब स्थिति ग्रामीण इलाकों में थी, हालांकि सरकार ने लोगों को मदद के तौर पर घरों के पुनर्निमाण के लिए लकड़ी के खंभे, पुर्लिन और 3 हजार रुपये नकद सहायता दी थी।
मंजर को याद कर आ जाती है सिहरन
तबाही इतने बड़े लेबल पर थी, राहत एवं बचाव कार्य के लिए सेना को बुलाना पड़ा। प्रभावित लोगों को मलबे में से निकालकर तंबू और अन्य अस्थायी आश्रय स्थलों पर पहुंचाया गया। बरेला के हिनोतिया गांव में रहने वाले सुरेंद्र पटेल कहते हैं कि उस समय वह महज 15 वर्ष के थे। वह कहते हैं कि उस घटना की याद आने भर से ही पूरा दृष्य सामने आ जाता है, वह कहते हैं कि छत, दीवारें और फर्श सभी कांप रहे थे। पूरा मोहल्ला सडक़ों पर था, आंखों के सामने आशियाना गिरते और उसमें लोगों को दबते देखकर लोग रो रहे थे और चीख चिल्ला रहे थे। किसी को नहीं समझ में आ रहा था कि वह खुद कैसे बचें और दूसरों को कैसे बचाएं।

Author: Jai Lok
