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महाराणा प्रताप: शौर्य, बलिदान एवं साहस का अमिट आलेख

आज जयंती पर विशेष

ललित गर्ग

हमारा देश भारत जिसे आस्था और विश्वास, शौर्य एवं शक्ति, बहादुरी और साहस, राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान की वीरभूमि कहा जाता है, जहां की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में शुमार है, जिसका अनुसरण संपूर्ण विश्व करता है। भारत की भूमि महान योद्धाओं की भूमि रही है, जिन्होंने भारत की एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे ही एक वीर एवं साहसिक योद्धा एवं सच्चे भारतीय महानायक थे महाराणा प्रताप, जो राजपूतों के सिसोदिया वंश से संबंध रखते थे। महाराणा को भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कभी अकबर के सामने समर्पण नहीं किया। मुगल साम्राज्य के विस्तार के विरुद्ध उनके प्रबल प्रतिरोध ने उन्हें भारतीय इतिहास में अमर बना दिया है। हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की विशाल सेना का सामना करते हुए उन्होंने जो वीरता दिखाई, वह आज भी शौर्य, पराक्रम, राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान की प्रेरणा देती है। उनके जीवन की घटनाएं गौरवमय इतिहास बनी है। वे एकलौते ऐसे महान् राजपूत योद्धा थे, जिन्होंने अकबर को चुनौती देने का साहस ही नहीं दिखाया बल्कि युद्ध के मैदान में लोहे के चने चबवाये।
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ में हुआ था। जो हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी। जो इस वर्ष 29 मई को मनाई जाएगी। युवावस्था में ही महाराणा प्रताप ने तलवारबाजी, घुड़सवारी और युद्धनीति में महारत हासिल कर ली थी। उनकी जन्म जयंती न केवल उनके जन्म का उत्सव है, बल्कि उनके आदर्शों, विरासत और भारत की सांस्कृतिक धरोहर में दिए गए उनके अमूल्य योगदान का सम्मान भी है। महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के सेनापति राजा मानसिंह के बीच 8 जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था। महाराणा प्रताप ने लगभग 20 हजार सैनिकों के साथ 85 हजार की मुगल सेना से बहुत ही साहस, शौर्य, पराक्रम एवं बहादुरी के साथ सामना किया। दोनों सेनाओं के बीच गोगुडा के नजदीक अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के बीच यह युद्ध हुआ। इस लड़ाई को हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से संधि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयां लड़ते रहे।
इस युद्ध में उनका प्रिय घोड़ा चेतक भी वीरगति को प्राप्त हो गया, लेकिन इसके बाद भी महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और युद्ध जारी रखा। मुगल शासक अकबर ने मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित करने की भरपूर कोशिश की। लेकिन महाराणा प्रताप ने कभी भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया और जीवन भर मुगलों के खिलाफ स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष करते रहे। उनका परिवार बहुत ही कठिन परिस्थितियों में रहा। वे कई सालों तक जंगलों, गुफाओं और पहाडिय़ों में रहे। उन्होंने पेड़ों की छाल से बने साधारण कपड़े पहने और जंगली फल और जड़ें खाईं। उनकी पत्नी और बच्चे कभी-कभी घास की रोटी खाते थे। फिर भी, उन्होंने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया या मुगलों के साथ समझौता नहीं किया। उनके शौर्य और वीरता की कहानी को आज भी बहुत ही गर्व के साथ याद किया जाता है। राजस्थानी भाषा के ख्यात कन्हैयालाल सेठिया की प्रसिद्ध राजस्थानी कविता ‘पातल और पीथल’ हल्दीघाटी युद्ध के बाद की घटनाओं पर आधारित राणा प्रताप के जीवन में आई कठिनाइयों और उनके संघर्ष को दर्शाती है।
आजाद भारत में महाराणा प्रताप जैसे शूरवीरों के त्याग एवं बलिदान, शौर्य एवं पराक्रम को विस्मृत करने की चेष्टायें व्यापक पैमाने पर हुई है। हमने इन असली महानायकों को भूलाकर अकबर एवं औरंगजेब जैसे आक्रांताओं को नायक बनाने की भारी भूल की है, नायक अकबर नहीं महाराणा प्रताप हैं, उन्होंने औरंगजेब को घुटने टेकने पर मजबूर किया और घुट-घुट कर मरने पर मजबूर किया। सनातन धर्म को नष्ट करने की साजिश करने वाले भारत के नायक कैसे हो सकते? अकबर हो या औरंगजेब, हिन्दुओं एवं हिन्दू राष्ट्र के प्रति सबकी मानसिकता एक ही थी- भारत की सनातन परंपरा को रौंदने के लिए तमाम षड्यंत्र रचना एवं भारत की समृद्ध विरासत को लूटना। इसके विपरीत, महाराणा प्रताप ने अपने बलिदान से सनातन संस्कृति की रक्षा की। ये राष्ट्रनायक हमारी असली प्रेरणा हैं।
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट ऊंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता ‘चेतक की वीरता’ में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ की गई है। जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। मेवाड़ की जनजाति ‘भील’ कहलाती है। भीलों ने हमेशा हर संकट एवं संघर्ष के क्षणों में महाराणा प्रताप साथ दिया। एक किवदंती है कि महाराणा प्रताप ने अपने वंशजों को वचन दिया था कि जब तक वह चित्तौड़ वापस हासिल नहीं कर लेते, तब तक वह पुआल यानी घास पर सोएंगे और पेड़ के पत्ते पर खाएंगे। आखिर तक महाराणा को चित्तौड़ वापस नहीं मिला। उनके वचन का मान रखते हुए आज भी कई राजपूत अपने खाने की प्लेट के नीचे एक पत्ता रखते हैं और बिस्तर के नीचे सूखी घास का तिनका रखते हैं।
महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता, भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे, भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते है, इसलिए भील महाराणा को भी कीका नाम से पुकारते थे। महाराणा प्रताप का दिल और दिमाग ही नहीं, बल्कि उनका शरीर भी साहसी एवं लोह समान था। कहा जाता है कि महाराणा प्रताप 7 फीट 5 इंच लंबे थे। वह 110 किलोग्राम का कवच पहनते थे, वह 25-25 किलो की 2 तलवारों के दम पर किसी भी दुश्मन से लड़ जाते थे। महाराणा प्रताप एक महान पराक्रमी और युद्ध रणनीति कौशल में दक्ष थे। उन्होंने मुगलों के बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी भी अपनी आन, बान और शान के साथ समझौता नहीं किया। उनको धन-दौलत की नहीं बल्कि मान-सम्मान की ज्यादा परवाह थी। अकबर के सामने महाराणा पूरे आत्मविश्वास से टिके रहे। एक ऐसा भी समय था, जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह अकबर के कब्जे में था, लेकिन महाराणा अपना मेवाड़ बचाने के लिए अकबर से 12 साल तक लड़ते रहे।
महाराणा प्रताप के देशप्रेम, साहस एवं समर्पण ने उनके लोगों को प्रेरित किया। भामाशाह ने एक बार सेना के पुनर्निर्माण में मदद करने के लिए अपनी सारी बचत और सोना दान कर दिया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में महाराणा प्रताप ने मुगलों से कई महत्वपूर्ण स्थानों को पुन: प्राप्त किया, जिनमें देवर, कुंभलगढ़, रणकपुर और चावंड शामिल हैं। उन्होंने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाया और अपने राज्य की स्थिति को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने सडक़ें, झीलें, मंदिर और सिंचाई प्रणालियाँ बनवाईं। महाराणा प्रताप सिर्फ योद्धा ही नहीं थे बल्कि एक अच्छे शासक भी थे। उन्होंने स्थानीय कला, कृषि और संस्कृति को महत्व दिया। उनका शासन न्याय और लोगों के कल्याण पर आधारित था। उनका निडर स्वभाव, दृढ़ता और अपनी भूमि के प्रति प्रेम उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे महान प्रतीकों में से एक बनाता है। उन्होंने साबित कर दिया कि असली ताकत संख्या में नहीं, बल्कि चरित्र में होती है। वह अपनी बहादुरी, बलिदान और देशभक्ति के उदाहरण से पीढिय़ों को प्रेरित करते रहते हैं।

 

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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