
अमेरिका में हुए साक्षात्कार में जीवन यात्रा पर बनी डॉक्युमेंट्री पर बोले विवेक तन्खा
परितोष वर्मा
जबलपुर (जय लोक)। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता, राज्यसभा सांसद, और मानवता के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप देखे जाने वाले मध्य प्रदेश के सबसे युवा एडवोकेट जनरल बनने से लेकर राज्य से पहले एडिशनल सॉलिसिटर जनरल बनने तक उपलब्धि अपने नाम दर्ज करवाने वाले विवेक कृष्ण तन्खा का विगत दिवस उनके अमेरिका दौरे के दौरान एक अमेरिकन न्यूज चैनल ने उनके जीवन पर आधारित बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म एवं उनके जीवन यात्रा से संबंधित सवाल पूछे।इन सवालों के उत्तर श्री तन्खा ने दिये उनमें से बहुत सी बातें ऐसी है जो शायद उनसे जुड़े लोग भी नहीं जानते होंगे।
साक्षात्कार के दौरान जब यह सवाल आया कि आपने अपनी जिंदगी, आपके संघर्ष, सफलता और सच्चाई को फिल्म के रूप में पर्दे पर देखा, तो कैसा महसूस हुआ? इस फिल्म का कौन-सा हिस्सा आपको सबसे ज़्यादा व्यक्तिगत रूप से छू गया? इस पर श्री तन्खा ने उत्तर दिया सबसे पहले तो मैं एक स्वीकारोक्ति करना चाहता हूँ यह फिल्म बिल्कुल अनियोजित थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी जि़ंदगी पर कोई फिल्म बनेगी और सच कहूँ तो, मुझे नहीं लगता कि मैंने कुछ इतना असाधारण किया है कि उस पर फि़ल्म बनाई जाए। मैं तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाता हूँ हर दिन कुछ नया होता है, और मैं कभी पीछे मुडक़र नहीं देखता कि कल क्या किया था। यह सब एक संयोग था। अजय चिटनिस जी मुझसे उस समय मिले जब वे लॉर्ड रामी रेंजर के लिए एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे। उन्हें मेरे एक शॉट की ज़रूरत थी। उसी दौरान उन्होंने मुझसे कहा, ‘तन्खा साहब, मैं आपके ऊपर एक फिल्म बनाना चाहता हूँ। आपकी एक कहानी है। मैंने कहा, ‘मेरी कहानी?’ तो उन्होंने कहा, ‘आपको खुद अपनी कहानी का अंदाजा नहीं है।’

आमतौर पर बायोपिक फिल्में 6 से 10 दिनों में बन जाती हैं। लेकिन इस फिल्म को बनने में 6 से 8 महीने लग गए। उन्होंने मेरे जीवन के हर पहलू को जोडऩे की मेहनत की रोटेरियन के रूप में, प्रोफेशनल के रूप में, ‘देश पहले’ की भावना से, राहत अभियानों से, विशेष बच्चों के स्कूलों से, बड़े मुकदमों से, मध्यप्रदेश के पुनर्गठन से लेकर प्राकृतिक आपदाओं तक। हर बार जब देश में कुछ भी होता था, तो पता नहीं कैसे मैं उससे जुड़ जाता था।
यहाँ से होती ह कहानी कि शुरुआत
श्री तन्खा ने कहा कि यह सब शुरू होता है मेरे पिताजी से। 1970 में जब मैं सिर्फ 17 साल का था, मेरे पिताजी जो एक हाई कोर्ट के जज थे बहुत कम उम्र में चल बसे। लेकिन उससे पहले, 1972 में, उन्होंने और मदर टेरेसा ने मिलकर जबलपुर में पहला चैरिटी सेंटर खोला। हमारे पास उन दिनों की तस्वीरें हैं, जब मदर टेरेसा हमारे घर आईं थीं।
1975 में उन्होंने एक ऐतिहासिक फैसला दिया। शिवकांत शुक्ला बनाम एडीएम जबलपुर केस। यह इमरजेंसी के खिलाफ पहली असहमति थी। उन्होंने और जस्टिस एपी सेन ने कहा था कि अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता आपातकाल के दौरान भी समाप्त नहीं होता। सरकार इस बात से सहमत नहीं थी, लेकिन 14 हाई कोर्ट ने इसे सही ठहराया। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट गया, और 1976 में उस समय के मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने हमारे हाई कोर्ट के निर्णय को खारिज कर दिया।
लेकिन 40 साल बाद, उनके बेटे जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, तो उन्होंने अपने पिता के उस फैसले को पलटते हुए कहा ‘हाई कोर्ट सही था।’ फिल्म में मैंने यही कहा है कि ‘यह जानने में 40 साल लग गए कि जो उन्होंने किया था, वह सही था और अब वे इस दुनिया में नहीं हैं कि यह देख सकें।’

पिता का जीवन पर प्रभाव
सवाल आया कि आप अपने पिताजी की बात कर रहे हैं लगता है कि आपके व्यक्तित्व पर पिताजी का गहरा प्रभाव है।
इस पर जवाब देते हुए श्री तन्खा ने कहा कि बिलकुल, मेरे दादा जी एक क्लैरवॉयंट (भविष्यद्रष्टा) थे। वे रीवा में रहते थे, बहुत ईमानदार अफसर थे । साइकल या रिक्शा से दफ्तर जाते थे, जबकि उनके जूनियर कार से आते थे। पूरा विंध्यप्रदेश उनकी कहानियाँ जानता है। 1978 में जब इंदिरा गांधी रीवा आईं, तो उन्होंने मेरे दादा जी से मुलाक़ात की। उन्होंने पूछा, ‘बाबा जी, मेरा भविष्य क्या है?’ उन्होंने कहा, ‘इंदिरा, तुम्हारी वापसी कोई नहीं रोक सकता। लेकिन उससे पहले एक और प्रधानमंत्री आएगा’ और हुआ भी ऐसा ही। पहले चरण सिंह और फिर 1980 में इंदिरा जी की वापसी हुई।
फिर सवाल आया कि आपने इतने अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया है, इतने सारे रोल में एक जैसी ऊर्जा और जुनून कैसे बनाए रखते हैं? श्री तन्खा मुस्कुराये और कहा कि इसे बयान करना मुश्किल है। शायद मैं ऐसा ही बना हूँ। जो भी मानवीय विषय सामने आता हैं, और अगर वो मेरी जानकारी में आता है, तो मैं बिना किसी आमंत्रण के तुरंत प्रतिक्रिया देता हूँ। एक छोटी सी कहानी बताता हूँ जबलपुर की। कुछ साल पहले, टाटा में काम करने वाली एक 23-24 साल की लडक़ी लंदन में सडक़ दुर्घटना में मारी गई। आठ दिन तक उसका शव पोस्टमॉर्टम के इंतजार में पड़ा रहा। परिवार पूरी तरह टूट गया था। मैंने यह खबर जबलपुर में अखबार में पढ़ी। तुरंत परिवार से संपर्क किया। उन्होंने कहा, ‘सर, हम कुछ समझ नहीं पा रहे।’ मैंने तुरंत लॉर्ड रामी रेंजर को कॉल किया और कहा, कृपया वहां के कोरोनर से संपर्क करें ताकि रिपोर्ट जल्दी तैयार हो सके और बेटी का पार्थिव शरीर घर लाया जा सके।
संतोष अहंकार से नहीं आता
सवाल आया कि क्या ऐसे कठिन समय में मदद कर पाना आपको व्यक्तिगत रूप से संतोष देता है? श्री तन्खा ने सहजता से जवाब दिया-बिलकुल, कोरोना का वो समय पूरे देश और समाज के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था। चारों ओर हाहाकार था, एक अजीब सी असहायता थी मुझे याद है कि जबलपुर के मेडिकल कॉलेज में सेना का अस्पताल भी ऑक्सीजन का इंतजार कर रहा था। वो भी परेशान थे। ऐसे समय में, अगर आप किसी भी रूप में मदद कर पाते हैं, तो हाँ, दिल को सुकून मिलता है। ये संतोष अहंकार से नहीं, बल्कि इस बात से आता है कि शायद किसी को जीने का एक और मौका मिल गया।
सवाल आया कि कश्मीरी पंडितों के लिए शारदा पीठ कॉरिडोर का क्या भावनात्मक और आध्यात्मिक महत्व है?
इस पर श्री तन्खा ने कहा कि शारदा पीठ हमारे लिए एक अत्यंत पवित्र स्थल रहा है। स्वतंत्रता से पहले के समय की बात कर रहा हूँ। आज़ादी के बाद ये एलओसी के उस पार चला गया, और वहाँ जाना मुश्किल हो गया। मेरा कहना है कि अगर आप करतारपुर साहिब के लिए कॉरिडोर बना सकते हैं,तो शारदा पीठ के लिए क्यों नहीं? फर्क सिर्फ इतना है कि सिख समुदाय संख्या में बड़ा है, प्रभावशाली है, इसलिए सरकार ने पहल की। हम छोटे हैं, इसलिए हमारे लिए कोई पहल नहीं करता। यही सच्चाई है।
क्या कूटनीतिक या व्यावहारिक चुनौतियाँ दिखती हैं?
श्री तन्खा ने कहा कि यह पूरी तरह भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच समझौते से ही संभव होगा। आज के माहौल में इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है। पर यह स्थिति स्थायी नहीं रहेगी। कभी ना कभी रिश्ते बेहतर होंगे। जब होंगे, तो विदेश मंत्रालय को यह मुद्दा उठाना चाहिए। बात करनी चाहिए। यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है। पर इसके लिए इच्छाशक्ति होनी चाहिए और अफ़सोस, कश्मीरी पंडितों के लिए वो इच्छाशक्ति आज दिखाई नहीं देती।
फिर सवाल आया कि आज भी आपको क्या चीज प्रेरित करती है?
श्री तन्खा ने कहा कि मुझे लगता है कि अगर ईश्वर ने आपको शक्ति, पद, या धन दिया है और आप उसे बाँटते नहीं हैं तो वो सब बहुत दिन टिकता नहीं है। सच्चा सुख और संतोष तभी आता है जब आप दूसरों के साथ साझा करते हैं। एक बेहतर समाज वही होता है जहाँ लोग एक-दूसरे को आगे बढऩे में मदद करते हैं। यही मुझे प्रेरित करता है, और यही मुझे ज़मीन से जोड़े रखता है। अंत में श्री तन्खा ने कहा मैं कोई राजनेता नहीं हूँ-मैं सिर्फ वो करता हूँ जो मुझे सही लगता है।
राजनीति की एक सबसे ताकतवर पहल
साक्षात्कार के दौरान बात आई श्री तन्खा के द्वारा राजनीति की एक सबसे ताकतवर पहल के बारे में जिसमें उन्होंने कश्मीर फंडेड पुनर्वास विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किया था । इस कदम के पीछे प्रेरणा और इससे उम्मीद के बारे में श्री तन्खा ने कहा कि मेरी प्रेरणा इस समुदाय का वर्षों का दु:ख और अन्याय भोगना रहा है। कश्मीर में जो हुआ, विशेषकर 1990 के दशक की शुरुआत में, वो एक तरह का नरसंहार था। पहले भी पलायन हुआ था, लेकिन इस बार की भयावहता बिल्कुल अलग थी। और ये सब हमारे साथियों, हमारे भाइयों और बहनों के साथ हुआ। मैं खुद बहुत गुस्से में था। क्या गलती की थी उन्होंने? ये लोग तो हमेशा से राष्ट्रवादी रहे हैं। फिर क्यों उनके साथ ऐसा हुआ? हमें हमेशा वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया गया, पर कोई हमारे लिए खड़ा नहीं हुआ। क्योंकि हम संख्या में कम थे पाँच या दस लाख लोग इससे तो कोई सीट प्रभावित नहीं होती थी और जब आप किसी सीट को प्रभावित नहीं करते, तो राजनीतिक दलों को आपके लिए कुछ करने में रुचि नहीं होती। मेरे विधेयक में साफ है एक आयोग बने, अपराधियों की पहचान हो, दोषियों को सज़ा मिले। इसके अलावा, कश्मीरी पंडितों को प्रतिनिधित्व मिले, ताकि उनकी ‘घर वापसी’ की भावना बनी रहे। उनके धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों की रक्षा हो। यह एक समग्र विधेयक है, जिसे तैयार करने में मुझे काफी समय लगा।
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Author: Jai Lok
