
अर्जुन ज्ञान का उपासक नहीं है। वह किसी अधिविद्या की माँग नहीं कर रहा। अर्जुन, हमारी आपकी तरह सांसारिक द्वंद्वों में उलझा हुआ कर्मशील व्यक्तित्व है। इसलिए वह भगवान् के मार्गदर्शन में अपना कर्तव्य निश्चित करना चाहता है, कर्म का विधान जानना चाहता है।
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक
‘गीता को जानें’ लेखमाला- (19)

अर्जुन के युद्ध न करने के निर्णय को खारिज करते हुए भगवान् ने तीन तर्क दिये थे – ऐसा करना आर्यों के योग्य नहीं है, यह स्वर्ग को नहीं देगा और अपयश होगा। यद्यपि श्रीकृष्ण की लताड़ से भी अर्जुन युद्ध न करने के निश्चय से नहीं डिगा परंतु इसने उसे अंदर तक झकझोर दिया। इससे वह कुछ संतुलित हुआ और श्रीकृष्ण की बातों का जवाब देने के लिए उसने नए तर्कों को पेश करना शुरू कर दिया। अब वह श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है – हे मधुसूदन ! मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण पर किस प्रकार बाणों से प्रहार करूँगा हे अरिसूदन! वे दोनों तो पूजा के योग्य हैं (गीता 2.4)। इन महानुभाव गुरुजनों की हत्या करने से तो निश्चय ही यह अच्छा है कि मैं इस संसार में भीख माँग कर खा लूँ। क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी आखिर इस संसार में, मैं रक्त से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूँगा (2.5)। न हम यह जानते हैं कि हमारे लिए अधिक अच्छा क्या है, हम उन पर विजय पाएँ या वे हम पर विजयी हों जिन्हें मारकर हम जीना नहीं चाहते वे धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में सामने खड़े हैं (गीता 2.6)।
एक ही श्लोक में मधुसूदन और अरिसूदन संबोधन देकर मानो अर्जुन श्रीकृष्ण को याद दिला रहा है कि आपने मधु नामक दैत्य का वध किया, आप शत्रुओं का विनाश करते हैं परंतु यह तो आपके केवल शत्रु हैं, इनसे आपका कोई अन्य संबंध नहीं है। परंतु मेरी स्थिति कठिन है। मेरे सामने तो घर के बड़े-बूढ़े खड़े हैं, वे न दैत्य है न शत्रु। भला उन्हें मैं कैसे मारूँ गुरुजनों को मारकर कौन सा स्वर्ग सुख मिलेगा, उल्टे उनके रक्त से सने भोग मिलेंगे। युद्ध छोडऩे का अपयश इन्हें मारने से होने वाले अपयश से तो कम ही होगा। क्षत्रिय धर्म भिक्षा माँगने की अनुमति नहीं देता, इसमें अपमान भी है परंतु गुरुवध रूपी घोर पाप की तुलना में भिक्षावृत्ति कम निन्दनीय है। गुरुजनों को मारकर अधिक से अधिक ऐहिक सुखभोग ही मिलेंगे परंतु वह भी उनके रक्त से सने होंगे । अर्जुन निर्णय कर नहीं पा रहा कि वह युद्ध करे या न करे किसका जीतना श्रेयस्कर होगा – कौरवों का या पांडवों का कौरवों के संबंध में वह कहता है कि ‘जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते’ परंतु सम्पूर्ण महाभारत में दोनों के बीच ऐसे अनूठे प्रेम का कोई उदाहरण नहीं मिलता। कौरव निरंतर पांडवों के साथ अन्याय करते रहे और उनके विनाश के लिए अनेक उपाय करते रहे। भले ही अर्जुन अभी तक श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व से परिचित नहीं था परंतु वह जानता था कि वह द्वारका के राजा, आर्यावर्त के राजाओं के बीच प्रथम पूज्य, महान कूटनीतिज्ञ, बलशाली, पांडवों को हर मुसीबत से निकालनेवाले और स्वयं उसके संबंधी और सखा थे। इसलिए वह श्रीकृष्ण के वचनों को हल्के में नहीं ले सकता था। अभी तक अर्जुन अपनी मोहजनित बीमारी को ही स्वास्थ्य समझ रहा था। जब तक हम अपनी बीमारी को ही स्वास्थ्य समझते रहेंगे तब तक उसके इलाज की इच्छा ही जाग्रत नहीं होगी। अच्छी बात यह है कि अब अर्जुन की दृष्टि अपनी मानसिक दुर्बलता की तरफ जाती है और वह सरल हृदय से श्रीकृष्ण के समक्ष अपनी कमजोरी स्वीकार कर लेता है। वह कहता है – दुर्बलता दोष के कारण मेरा स्वभाव दबा हुआ है। मन धर्म के विषय में भ्रमित है। मैं आपसे पूछता हूँ कि जो मेरे लिए कल्याणप्रद हो वह निश्चित रूप से बतलाइएगा। मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे शिक्षा दीजिए, आपकी शरण में आया हूँ (गीता 2.7)। यहाँ उल्लेखनीय है कि अर्जुन ने युद्ध में विजय का तरीका नहीं पूछा। युद्ध तो वह चाहता ही नहीं था क्योंकि युद्ध का अर्थ था स्वजनों का वध। उसने अपने कल्याण का मार्ग पूछा। यह बिलकुल अलग पहलू है। जीवन में जीत-हार सुख-दु:ख दे सकती है, पर वह अस्थाई होगा। इसलिए हार-जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है जीवन में स्थाई आनंद, शांति की प्राप्ति करना। इसलिए वह शिष्य बनकर शरणागत हो गया। संस्कृत में शिष्य का अर्थ है ‘जो शासन करने योग्य हो’। गुरु शिष्य पर शासन ही तो करता है, गुरु कहता है शिष्य मानता है तभी तो शिष्य कुछ सीख पाता है। यहाँ भाव है कि आप मुझे आज्ञा दीजिए, मुझ पर शासन कीजिए। अर्जुन ज्ञान का उपासक नहीं है। वह किसी अधिविद्या की माँग नहीं कर रहा। अर्जुन, हमारी आपकी तरह सांसारिक द्वंद्वों में उलझा हुआ कर्मशील व्यक्तित्व है। इसलिए वह भगवान् के मार्गदर्शन में अपना कर्तव्य निश्चित करना चाहता है, कर्म का विधान जानना चाहता है।महाभारत युद्ध से पहले दुर्योधन और अर्जुन दोनों युद्ध में श्रीकृष्ण की सहायता माँगने गये थे। श्रीकृष्ण ने कहा था कि एक और मेरी नारायणी सेना होगी दूसरी ओर केवल मैं रहूँगा परन्तु मैं न युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा। दोनों में से चुनने का प्रथम अवसर अर्जुन को मिला था। तब उसने श्रीकृष्ण को ही अपने पक्ष में माँगा था। अपने संस्कारों व हृदय की सरलता के कारण वह प्रारंभ से ही चाहता था कि भगवान् उसका मार्गदर्शन करें, उसके जीवन की बागडोर संभालें। बीच में मोह के कारण इस भाव की विस्मृति हो गयी थी । अब पुन: अर्जुन उसी भाव में पहुँच रहा है। अर्जुन के समक्ष धर्म के दो पक्ष थे – वेदों में प्रतिपादित अहिंसा धर्म और क्षत्रिय होने का स्वधर्म। प्रथम के पालन का अर्थ है युद्ध से विरत रहना जिससे कुलनाश, जातिधर्म का नाश, स्वजनों की हिंसा और पितरों के पतन से बचा जा सकता है। इसके विपरीत क्षत्रिय होने के कारण न्याय के लिए युद्ध करना उसका स्वधर्म था। इन दोनों द्वंद्वों के बीच अर्जुन की बुद्धि निर्णय नहीं कर पा रही थी। क्षत्रिय का कर्तव्य है धर्मयुद्ध जबकि ब्राह्मण का कर्तव्य है अहिंसा में प्रतिष्ठित होकर, धन-संपदा के लोभ से मुक्त होकर भिक्षा माँगकर जीवन यापन करना। शास्त्रों के अनुसार जीवन का विकासक्रम है क्षात्रभाव से ऊपर उठकर ब्राह्मणभाव को प्राप्त करना। अर्जुन का स्वभाव रजोगुणी और क्षत्रिय था। उसे रजोगुण से सतोगुण और क्षत्रिय से ब्राह्मण तक की यात्रा करनी थी। उसे जीवन संग्राम से गुजरना ही होगा तभी यह विकास यात्रा पूरी होगी। वह अपनी कमियों को छिपाने के लिए ब्राह्मणभाव का सहारा ले रहा था जो अभी प्राप्त नहीं हुआ था। अर्जुन की धर्म के संबंध में जो समझ थी उसके अनुसार क्षात्रधर्म के पालन से भौतिक सुख, राज्य, संपदा आदि प्राप्त हो सकती है पर कल्याण तो ब्राह्मणभाव के पालन से ही होगा। भगवान् इस धारणा को निर्मूल करते हुए आगे बतलाएँगे कि कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता। कर्तृत्वाभिमान व फलासक्ति का त्याग के साथ करके पर प्रत्येक कर्तव्यकर्म कल्याण कर सकता है। (क्रमश:)

Author: Jai Lok
