(जयलोक)। एडवोकेट राजेंद्र जैन मप्र स्टेट बार कौंसिल के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए हैं और नागरिकों वाली वरिष्ठता की उम्र में होते हुए भी नौजवानी खिलंदड़ेपन को अपनी जिंदगी से जुदा नहीं होने देने की जिद पर डटे हुए हैं। जिंदादिली और दोस्तानापन उनके स्वभाव में घुला हुआ है। वे लेखक, पत्रकार या कवि नहीं हैं, लेकिन उनका बौद्धिक मिजाज ऐसा है, जो उन्हें वही बना सकता था। उनके मित्र कवि, लेखक, पत्रकार और राजनैतिक बहसबाज लोग रहे हैं और अब भी हैं।
मेरी उनसे पहली मुलाकात 1972 वाले साल में तब हुई थी, जब मैं अपने कॉलेज छात्रसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित होकर, विश्वविद्यालय राजनीति में सक्रिय दो बड़े समूहों में से एक और प्रगतिवादी रुझान रखने वाले नगर छात्र संघ के अध्यक्ष श्याम बिलौहा को खोजते हुए सिटी कॉफी हाउस के सामने वाली होटल जा पहुँचा था। वहाँ मुझे बहुत सारे दोस्त हासिल हुए। हिमांशु राय, शशांक , रहीम शाह वगैरह। राजेंद्र जैन भी उनमें शामिल हैं। प्रभाकान्त पहले से मेरे सहपाठी थे।
वह छात्रों की घमासान राजनीति वाले दिन थे। दूसरी तरफ होस्टल पैनल नाम का समूह था, जिसका नेतृत्व शरद यादव और डॉ आरके रावत करते थे। आमना-सामना, मुठभेड़ें और उठा लेने जैसी वारदातें आम थीं। झगड़ालू लडक़े इधर भी थे, उधर भी। रणनीतियाँ इधर भी बनती थीं, उधर भी। पर इससे भी बड़ी बात यह थी कि दोनों तरफ की छात्र राजनीति में विचारधाराओं का भी साफ-साफ प्रभाव था, जो अब सिरे से नदारद है। इधर साम्यवादी और कांग्रेसी विचारों से संचालित नेतृत्व था, तो उधर लोहियावादी समाजवादी विचारधारा से संचालित। यही सबसे बेहतर बात होती है, छात्र राजनीति में विचारधाराओं का होना। होने से युवा ताकत को एक दिशा मिलने लगती है। उसका मनमाना उपयोग नहीं होता।
तो छात्र राजनीति को सामाजिक सरोकारों से जोडऩे का करतब करते, 23 जनवरी, 1974 में छात्र आंदोलन पर हुए पुलिस प्रहार और नगर को कर्फ्यु की गिरफ्त में जाते, शरद यादव को सांसद बनते, आपातकाल में बिखरते और फिर पढ़ाई पूरी कर नौकरियों में जाते हुए जो वक्त अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है, उसका पुनर्स्मरण राजेंद्र जैन से हुई लंबी बातचीत में किया गया।
राजेंद्र जैन के अनुसार स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में देश की आजादी के लिए हर छात्र और नौजवान सक्रिय रूप से आंदोलनों से जुड़ा हुआ था। बाद के सालों में वह राष्ट्रीय सक्रियता कमतर होती गई और एक ऐसा भी समय आया, जब छात्रों के केवल महाविद्य़ालयीन अध्ययन-अध्यापन से जुड़े हुए मुद्दों को ही उठाया जाने लगा था। 1967-68 में तमिलनाडु में छात्र हिंदी भाषा के विरोध में आंदोलन करने के लिए अपनी सीमित राजनीति से बाहर निकले थे। इधर लोहिया के प्रभाव के चलते उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चला और छात्रों ने ही उसमें प्रधान भूमिका निभायी थी।
जबलपुर में छात्र राजनीति को उसकी सीमाओं से बाहर निकालने का काम उन दिनों हुआ जब मदन तिवारी हरिनारायण भट्टर और रामेश्वर नीखरा जैसे विचारवान लोगों ने छात्र राजनीति का नेतृत्व सम्हाल रखा था। उन दिनों राजेंद्र बाबू कॉलेज के पहले साल वाली कक्षा में थे। छात्र आंदोलनों में वे भी ‘हाथी, घोड़ा, पालकी, जय कन्हैयालाल की’ वाली खिलंदड़ी मुद्रा में सम्मिलित होने पहुँच जाया करते थे।
वे अतिसक्रिय किस्म के छात्र रहे हैं। स्कूली दिनों में भाषण, वाद-विवाद, नाटक जैसी बहुत सी गतिविधियों में हिस्सेदारी किया करते थे। इसी सक्रियता से उन्होंने अपने व्यक्तित्व निर्माण की बुनियाद डाली थी। परीक्षाओं में 34 प्रतिशत अंकों के भरोसे पर पढ़ाई चल रही थी, परंतु सहगामी कलापों में वह 90-95 फीसदी तक रही।
पिता नायब तहसीलदार सिहोरा थे। हायर सेंकेंडरी तक की पढ़ाई वहीं हुई। सिहोरा के पुस्तकालयों से ज्ञान बढ़ाया। नित्यनिरंजन खंपरिया, जो बाद में विधायक भी हुए उनके साथी बने। जबलपुर आकर अरविंद खरे, जॉन मथाई और रवि मथाई दोस्त बने। अरविंद खरे ने अपने विचारों से प्रभावित किया था। उनकी प्रेरणा से ही राजेंद्र भाई का झुकाव साम्यवादी विचारों की ओर हुआ था।
उन दिनों राजकुमार शुक्ल साइंस कॉलेज के छात्र नेता थे और अरविंद खरे वहीं से विवि-प्रतिनिधि चुने गए थे। नीखरा जी विवि छात्र संघ के अध्यक्ष थे। राजेंद्र भाई खुद को उनके आंदोलनों का रंगरूट मानते थे। उन्हीं दिनों बच्चन नायक और नगीन कोचर के संग मिलकर शरारतें भी होती रहीं। उद्दंड कहलाये। अध्यापकों के सामने अनैतिक होने का आस्वाद भी चखा। पर जब कानून की पढ़ाई करने के लिए हितकारिणी कॉलेज पहुँचे, तो गधा-पच्चीसी कहलाने वाली उम्र में ही परिपक्वता के बीजों का आगमन भी होने लगा था। कम्यूनिज्म का खाका स्पष्ट होने लगा था, जिसे रहीम शाह के सानिध्य ने मजबूती प्रदान की। दोनों अपनी-अपनी सायकलों पर कॉलेज आते-जाते और सायकलों की रफ्तार की तरह बातों की रफ्तार भी जारी रहतीं। रहीम शाह पनागर के निर्धन परिवार से जबलपुर आये थे. छात्र नेता श्याम बिलौहा से भी वहीं मुलाक़ात हुई। जगदीश तिवारी और केके मिश्रा भी वहीं मिले। पर उसी लॉ कॉलेज में कार्य-संस्कृति भी सीखी।
उन दिनों हितकारणी लॉ कॉलेज में नियोगी जी जैसे दबंग व्यक्तित्व वाले प्राचार्य हुआ करते थे। वे जानते थे कि राजेंद्र जैन जिस तरह के लडक़ों के समूह में हैं वह समूह आवारा लडक़ों का समूह नहीं है, बल्कि छा़त्रों और समाज की बुनियादी समस्याओं को लेकर सजग लडक़ों का समूह है, जो असली मुद्दों को लेकर सामने आते हैं। इसलिए उनके प्रति उनकी सहानुभूति भी रहती थी।
रहीम शाह लॉ कॉलेज के छात्र संघ का चुनाव लड़ाने के लिए अपना पैनल उतार चुके थे। यह बात कुछ लोगों को नागवार गुजरी। एक पहलवान बिग बॉस के अंदाज में कॉलेज आये। लडक़ों के झुंड में आकर पूरी दबंगई के साथ पूछा, रहीम कौन है, सुना है चुनाव लड़वा रहा है। रहीम शाह ने कहा, हम हैं रहीम। सही सुना है।
तब पहलवान ने अपना नाम लेकर बताया कि वे फलां पहलवान हैं। रहीम शाह ने कहा, हम लोग स्टूडेंट फेडरेशन वाले हैं। महेंद्र बाजपेयी हमारे नेता हैं। बाजपेयी जी का नाम सुनते ही वे पहलवान जी जैसे आए थे, वैसे ही प्रस्थान कर गए थे।
राजेंद्र जैन उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि साल 1972-73 में जगदीश तिवारी कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। एक भगवत राव नागले था, वह सडक़ पर कपड़े बेचकर अपनी फीस जुटाया करता था। बाद में वकील बना। सब साधारण और मध्यम वर्ग वाले घरों से आए हुए लडक़े थे। उनके घरों में अभाव था। समस्याएं थीं। मजबूरियाँ थीं। वे सब अपने घरों का विस्तार ही समाज में देखते थे। उनके लिए समाज एक बड़ा घर था। इसलिए उस समय के लडक़ों में समाज के लिए कुछ करने का जज्बा था। उन्हीं से छात्र आंदोलन को एक सकारात्मक दिशा मिली थी।
उन लडक़ों का समूह कॉलेज के सामने वाले सिटी कॉफी हाउस में बैठा करता था। कॉफी पाँच रुपये में आती थी। उतने रूपये किसी के पास नहीं होते थे। पर साँभर चार आने में एक डोंगा भर मिल जाता था। उसमें छह लोग छह चम्मचें डालकर खा लिया करते थे। एलएन मल्होत्रा कॉफी हाउस वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी के अध्यक्ष और लडक़ों के आदरणीय नेता थे। तो लडक़े अपनी राजनीतिक बहसों और बैठकों का अड्डा, वहाँ से हटाकर उसके सामने वाले नटराज होटल में ले गए थे।
लडक़े उच्चकोटि का साहित्य पढ़ते थे। हिंदी-अंग्रेजी के अखबारों को पढ़ते थे। बौद्धिक लोगों को सुनते थे। इसलिए उनकी राजनीति मु्फ्त सिनेमा देखने या मु्फ्त में बस यात्रा करने की बजाय बुनियादी सवालों को लेकर होती थी। मंहगाई, बेरोजगारी और व्यवसायपरक शिक्षा की बातें उठती थीं। इस राजनीति के प्रधान शिल्पकार रहीम शाह , श्याम बिलौहा, राजेंद्र जैन, हिमांशु राय, प्रभाकांत शुक्ल थे। इन लोगों के नेतृत्व में लडक़े राशन दूकानों पर जाते थे। रोजगार कार्यालय जाते थे। उनकी स्वार्थपूर्ण कार्य शैली पर अंगुली उठाते थे। बेईमानी के खिलाफ लड़ते थे। वह फैशनेबुल राजनीति न थी। उन्होंने और उनके साथियों ने माध्यमिक शिक्षक संघ के आंदोलन के समर्थन में जबलपुर बंद किया था और जेल गए थे। उसी में श्याम बिलौहा, शरद यादव और डॉ आरके रावत जैसे छात्र नेताओं पर मिसा लगाया गया था। बंगला देश की लड़ाई के समय लडक़ों ने दो-दो रुपये चंदा किया था और 2101 रुपयों का ड्राफ्ट भेजा था। बड़ी टेलरिंग दूकानें अपने कर्मचारियों को कम मेहनताना देती थीं, तो उनके खिलाफ आंदोलन चलाकर मेहनताना बढ़वाया था। घरों से वे नैतिक मूल्यों और संस्कारों को लेकर आने वाले लडक़े थे। पसीने में जिंदा थे, पसीने में संतुष्ट थे। मेहनत करके अपनी हैसियत बना रहे थे। हाथ सीधा था और मु_ी बंद। रोटी-प्याज खाकर भी संतोष था। राजेंद्र जैन का मानना है कि अंक सूची के अंक आपकी प्रतिभा को अभिव्यक्त नहीं करते, बल्कि आपका नजरिया और चीजों को देखने-समझने की आपकी दृष्टि ही आपकी प्रतिभा का दर्पण बन जाते हैं। ऐसी जीवन शैली होना चाहिए जो देह और सौंदर्य की बजाय विचारों से प्रभावित होती हो। जिसमें सहयोग और भाईचारे का भाव स्थायी रहता हो।
रचनात्मक युवाकाल वाले राजेंद्र जैन को प्रणाम!
प्रणाम जबलपुर !