(जयलोक)। वे इन्कम टैक्स कमिश्नर पिता के तीन बेटों में उच्च सबसे बड़े बेटे थे। उन्होंने रीजनल कॉलेज ऑफ टेक्नॉलॉजी, नागपुर से बीटेक की डिग्री हासिल की थी। वे छात्रसंघ के जनरल सेक्रेटरी भी चुने गये थे। सन् 1973 में वे जादुई तरीके से सहयोजित पार्षद बनकर जबलपुर नगर निगम में पहुंच गये थे। यह तब हुआ था, जब कि वे न तो किसी दल में थे और न ही उन्होंने किसी को पार्षद का चुनाव ही लड़ाया था। शरत भाई की बातों में एक जादुई प्रभाव था। वे सामने वाले को अपना मुरीद बना लेते थे। वे अपनी योजनाओं और आत्मविष्वास से भरी देहभाषा से प्रभावित कर लेते थे।
1973 के साल वाले महापौर केएल दुबे ने 1974 के साल के लिये चुनाव कराये थे। जनसंघ के बाबूराव परांजपे मेयर बने और रामकुमार अवस्थी डिप्टी मेयर। स्थायी समिति के लिये पार्षदों में से दस सदस्य चुने गये, पर एक मनमाना नुक्ता निकाल कर केएल दुबे ने स्थायी समिति को अवैध करार दे दिया था और सरकार को अपनी रपट भी भेज दी थी। तब प्रकाशचंद सेठी की सरकार ने नगर निगम भंग करने की योजना बना ली थी। नगर निगम के सदन क़े दरवाज़े पर ताला डलवा दिया था, ताकि स्थायी समिति बैठक करके अपना कोई अध्यक्ष ही न चुन सके और इसी बिना पर नगर निगम को भंग भी किया जा सके। पर शरत तिवारी ने उनकी योजना को कारगर नहीं होने दिया था। उन्होंने अपना रौद्र रूप दिखाया। अपने पार्षद साथियों के साथ मिलकर एक ताकतवर प्रतिरोध खड़ा किया और सदन का दरवाज़ा खुलवा कर ही चैन लिया और सदन में स्थायी समिति के अध्यक्ष के चुनाव की बैठक की थी।
कांग्रेस और केएल दुबे का समाजवादी दल बहिर्गमन कर गया। तब शरत तिवारी ने नवनिर्वाचित महापौर बाबूराव परांजपे को सदन की कुर्सी पर आसीन कराया और स्थायी समिति के चेयरमेन के चुनाव की प्रक्रिया आरंभ करायी थी। स्थायी समिति ने उन्हें अपना चेयरमेन चुना। राज्य सरकार ने स्थायी समिति के चुनाव को अवैध करार दे दिया था। शरत तिवारी मामले को उच्च न्यायालय ले गये। न्यायालय ने चुनाव को वैध माना।
एक साल के छोटे से अरसे में ही शरत भाई ने जबलपुर के लिये अनेक यादगार फैसले लिये थे। गोहलपुर इलाके के सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक दल स्कूल खोलने के लिये नजू़ल भूमि लीज पर चाहता था। शरत भाई ने उनसे कहा था, कि स्कूल के लिये उन्हें ज़मीन नगर निगम के द्वारा तय लीज-रेंट पर ज़रूर मिल जायेगी, परंतु यदि वे ‘लड़कियों’ के लिये स्कूल खोलें, तो नगर निगम उन्हें नजूल की ज़मीन मुफ्त में दे देगा। यही हुआ।
सेठी सरकार फिर आड़े आयी। उसने कहा कि जमीन देने का अधिकार सरकार का है। निगम भंग करने की धमकी फिर मिली। उन्होंने कहा था, मैं ऐसा करता हूँ कि प्रेस कॉफ्रंस बुलाकर कहे देता हूं कि सेठी जी नहीं चाहते, कि मुसलमानों की लड़कियां पढ़ें। सेठी जी इन दुस्साहसी बोलों के आदी न थे। वे सकते में आ गये। पल भर बाद ही बोले, ‘अच्छा, फाइल भेज दो। पास कर देंगे।’
’ठीक तो है’ शरत् भाई का तकियाकलाम था। वे इस वाक्यांश के जरिये अपने अंदर के लड़ाकू व्यक्ति को मैदान में उतर आने का वक़्त देते थे, फिर मैदान को सर करते थे।
एक और वाकया है। भारत की हॉकी टीम ने 1975 के विश्व कप का अंतरराष्ट्रीय मैच मलेशिया के कुआलालंपुर में जीता था। इस जीत पर शरत भाई ने नगर निगम की ओर से खिलाडिय़ों को ग्यारह हजार रुपयों का नकद पुरस्कार घोषित कर दिया था। इसके कारण जबलपुर नगर निगम का नाम देश भर के समाचार-पत्रों में सुर्खियां बन कर उभरा था। पर हर बात में नुक्ताचीनी की राजनीति करने वालों को यह बात भी गवारा न हुई थी। पार्षदों ने पुरस्कार दिये जाने के विरोध में हो-हल्ला मचाया। सवाल उठाये गये कि पुरस्कार घोषित करने वाले वे कौन होते हैं? धमकी दी गयी कि वे लोग पुरस्कार वाले प्रस्ताव को पारित ही नहीं होने देंगे। उन्होंने कहा, ‘तो ईनाम की रकम मैं अपनी जेब से दूंगा…।’
अब विरोध करने वालों को दूसरा हाईवोल्टेज झटका लगा। उन्हें लगा कि यह तो और भी बुरा होगा। सारा श्रेय शरत तिवारी को मिल जायेगा। तब उन्हीं पार्षदों ने यू टर्न लिया और तय हुआ कि नगर निगम ही पुरस्कार देगा। गौरव पाने का यह अलभ्य अवसर वह कैसे छोड़ सकता है।
दूसरा मामला रानी दुर्गावती की प्रतिमा से संबंधित है। प्रतिमा के निर्माण का ऑर्डर नगर निगम ने कई साल पहले से राजस्थान के किसी शिल्पी को दे रखा था। शरत भाई ने दो पार्षदों को राजस्थान भेजा। कीमत चुकायी गयी और प्रतिमा जबलपुर लायी गयी। उसे भंवरताल गार्डन में स्थापित किया गया और अनावरण के लिये रहस्यवाद और छायावाद काल की अनुपम सर्जक महादेवी वर्मा को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करने जैसा अनोखा काम भी हुआ।
शरत भाई परसाई जी के प्रिय पात्रों में रहे हैं। उनकी सलाहों से उन्होंने नगर निगम के अनेक निर्णय भी लिये थे। नगर के साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की मदद करने के लिये, जब कभी भी परसाई जी पर्ची भेजते थे, तो शरत भाई अपनी जेब से उसकी यथोचित सहायता करने में चूक नहीं करते थे। इसी तरह उनके मन में भाई ज्ञानरंजन और उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘पहल’ के प्रति पहाड़ सा आदर रहा है। नाटक-प्रेमी होने के कारण विवेचना और विवेचना रंगमंडल जैसी रंग-संस्थाओं के वे परम सहयोगी रहे हैं।
जिन दिनों वे नागपुर के रीजनल कॉलेज के छात्र हुआ करते थे, उन दिनों नागपुर में मराठी नाटकों की धूम मची रहती थी। तब उनके मन में अपनी मातृभाषा हिंदी को मराठी भाषी नागपुर में स्थापित करने की इच्छा इतनी प्रबल हो गयी थी, कि उन्होंने अनेक मराठी नाटकों का हिंदी में अनुवाद तक कर डाला था और उनका मंचन भी किया था। वे उन दिनों पढ़ाई के साथ-साथ, अभिनय-निर्देशन में भी आकंठ डूबे रहे। बबन प्रमु का नाटक ‘चोरावर मोर’ और एक अन्य नाटक ‘झोपी गेलेला जागे झाला’ का उन्होंने अनुवाद और मंचन किया था।
वसंत कानेटकर के नाटकों का भी उन्होंने अनुवाद किया। वसंत कानेटकर लिखित और वसंतदेव द्वारा अनुदित, ‘जब रायगढ़ जाग उठा’ नाटक में केंद्रीय चरित्र के रूप में शिवाजी के पुत्र संभाजी को प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा वसंत-द्वय की ही एक और रचना ‘ढाई आखर प्रेम का’ में प्रोफेसर की भूमिका में उन्होंने ही रंग भरे थे। आचार्य अत्रे के नाटक ‘मी मंत्री झालो’ में एक अयोग्य मुख्यमंत्री की भूमिका अदा की थी। पु.ल.देशपाण्डे के नाटक ‘तुझा आये तुझा पाषी’ में ‘काका’ नाम के पात्र की चर्चित भूमिका की थी। यह वही भूमिका है, जिसे अदा करके राजेश खन्ना का एक दूसरा नाम ‘काका’ ही पड़ गया था।
अब शरत तिवारी की जांबाजी का भी एक किस्सा सुन लीजिसे। 1973 में जबलपुर का मोटर स्टेंड, मोटर स्टेंड कम और पानी से भरी तलैया ही ज्यादा लगता था। बेजा कब्जों ने उसकी और भी दुर्दशा कर रखी थी। चेयरमेन की हैसियत से शरत भाई ने फैसला लिया कि बेजा कब्जे तोडक़र, मोटर स्टेंड को नया और उपयुक्त स्वरूप दिया जायेगा। ख़बर अख़बारों में छपी। कब्ज़ेदारों में हलचल मची।
दूसरे दिन कब्जेदारों ने शरत भाई का घर घेर लिया। वे उग्र हो रहे थे। मु_ियां लहरा रहे थे। उनका कहना था कि हमारी दूकानें नहीं तोड़ सकते। फैसला वापस लो। फैसला वापस लेने के लिये या तो हमसे मोटी थैली ले लो, या फिर हम तुम्हारे घर में आग लगा देंगे।
शरत भाई ने उनसे दो घंटे की मोहलत मांगी। व्यापारी खुश हो गये कि आया ऊंट पहाड़ के नीचे। शरत् भाई ने अपना स्कूटर उठाया और छू हो गये। गीता तिवारी ने अपने आंगन में बैठेे पति के विरोधियों को सद्भावनापूर्वक चाय भिजवायी। उनकी छातियां फूली हुईं थीं, कि आखिरकार चेयरमेन को पानी पिला ही दिया।
दो घंटे के बाद शरत भाई वापस आये। कब्जेदारों में खलबली मची। बताया कि मकान का इंश्योरेंस करा आया हूं। अब आप लोग आग लगा सकते हैं। भला ऐसे औघड़ किस्म के राजनेता के आगे क्या किया जा सकता था? फिर एक नया और मोटर स्टेंड लगने लायक मोटर स्टेंड बना।
शरत तिवारी के कारण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले की कुर्सी चली गई थी ,किस्सा यों है कि 1981 में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में उसके तत्कालीन संपादक अरुण शौरी की एक रपट छपी। उस रपट में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के एक कारनामे का पर्दाफाश किया गया था।
आपात्काल लगाने और विपक्ष को 19 महीनों तक जेल में बंद रखने तथा जयप्रकाश जी के ‘दूसरी आज़ादी’ आंदोलन की सफलता के कारण इंदिरा जी की सार्वजनिक छवि को बहुत नुकसान पहुंचा था। प्रेस पर सेंसरशिप लगाये जाने और अनेक लेखकों और पत्रकारों को प्रताडि़त किये जाने के कारण पत्रकार जगत् उनसे नाराज़ था। अंतुले और वसंत साठे जैसे लोगों के मन में यह विचार पनपा था कि इंदिरा गांधी की बिगड़ी हुई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय छवि को सुधारा जाये और उसके लिये कुछ नये उपाय किये जायें।
अंतुले ने अमरीका के ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की तजऱ् पर ‘इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान’ और ‘प्रतिभा प्रतिष्ठान’ नामक दो संस्थाएं स्थापित कीं। उद्देष्य था देश-विदेश के महत्वपूर्ण लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों को पुरस्कार, फैलोशिप और अन्य तरीकों से बड़ी राशियां उपलब्ध कराना और उनसे इंदिरा गांधी के पक्ष में लिखवाना।
उन्होंने इसके लिये महाराष्ट्र के भवन-निर्माताओं से चंदे के तौर पर काला धन हासिल किया। उन दिनों सीमेंट का संकट चल रहा था। सरकार का सीमेंट के उत्पादन और वितरण पर नियंत्रण था। अंतुले ने सीमेंट के बदले रकमें प्राप्त कीं। जो धन आया वह काला धन था। अपनी आदरणीय नेता के लिये काले धन से कोई काम करना अंतुले को गवारा न था। खुद इंदिरा गांधी भी इसे पसंद न करतीं।
इस समस्या का तोड़ निकाला अंतुले के निजी सचिव ने। उसने ‘बैंक ऑफ महाराष्ट्र’ के आला अफसर को तलब किया। अंतुले से भेंट करायी। अंतुले ने उससे उन बैंक-खातों के बारे में जानकारियां मांगीं, जो कि व्यवसायियों के थे। बैंक की देश भर की शाखाओं से जानकारियां मंगायी गयीं और अंतुले को उपलब्ध करा दी गयीं। बैंक की बंबई शाखा से उन व्यवसायिक फर्मों के नाम से डिमांड ड्राफ्ट बनाये गये और उन्हें ‘इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान’ और ‘प्रतिभा प्रतिष्ठान’ के खातों में चंदे के तौर पर जमा करा दिया गया। प्राप्त राशियों की रसीदें और अकांउट की किताबें भी बनायी गयीं। इस तरह पूरा कारोबार चाक-चौबंद कर लिया गया था।
पर इस पूरे घालमेल की जानकारियां मय प्रमाण के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक अरुण शौरी के हाथ लग गयीं। उन्होंने ‘अंतुले: तुले या नहीं तुले’ शीर्षक से सीमेंट के भारी घोटाले की ख़बर छाप दी। इसमें चंदा देने वाले व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के नाम और उनकी ओर से देय रकम का भी जिक्र था। इसी सूची में शरत् तिवारी की फर्म ‘प्रथम ऑयल’ के नाम से ‘इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान’ को एक लाख रुपये का चंदा डिमांड ड्राफ्ट से अदा किये जाने की सूचना थी।शरत् भाई ने वह रपट पढ़ी और जबलपुर उच्च न्यायालय में ‘इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान’ के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया कि उनके नाम से फर्जी चंदा दिखाया गया है और यह एक अपराधिक प्रकरण है। अरुण शौरी की रपट को अब गवाह भी मिल गया था। मुकदमा वापस लेने के लिए उन्हें प्रलोभन दिए गये। बात नहीं बनी तो धमकियां भी दी गईं। पर वे अडिग रहे। आखिकार अंतुले को इस्तीफा देना पड़ा था। तो ऐसे थे मेरे दोस्त, बंधु, और यार भी। वे अभी 28 नवंबर को चले गए। चले गए। आह कैसा बेभरोसा था वह दिन। अब वे नहीं हैं। हम सब अकेले हो गए हैं। मित्रता की दुनिया छूँछी हो गई है। सब उजाड़ हो गया है। हम बरगद की छाया से महरूम हो चुके हैं। अब हमारे पास उनकी यादें ही रह गई हैं। हमें उनसे ही अपनी बाकी की जि़न्दगी चलाने के उपाय करने होंगे। जाओ मित्र, पर तुम जाकर भी जा नहीं सकोगे। हमारी यादें तुम्हें जाने न देंगी। महफि़लों और स्मृतियों में तुम सदा मौजूद रहोगे।
ऐसे कौतुक प्रेमी जांबाज मित्र शरत तिवारी को प्रणाम!
जबलपुर प्रणाम!!
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