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गुजरात गवाह सुरक्षा विवाद: सुरक्षा की चिंता या स्टेटस सिंबल का सवाल? | – News in Hindi

आज सुबह एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर पर निगाह गई. खबर ये थी कि गुजरात सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों के बड़े मामलों से जुड़े गवाहों की सुरक्षा हटा दी है. इसी में ये भी लिखा था कि नरोड़ा पाटिया मामले में सजा सुनाने वाली जज ज्योत्सना याज्ञ्निक की भी सुरक्षा हटा दी गई है, जो दस साल पहले न्यायिक सेवा से रिटायर हो चुकी हैं. याज्ञ्निक और कुछ गवाहों के साथ उन दो वकीलों ने भी अपनी सुरक्षा हटाये जाने को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है, जिन्होंने या तो दंगों से जुड़े किसी बड़े मामले को अदालत में लड़ा था या फिर कानूनी सलाह दी थी.

प्याले में तूफान खड़ा करने की कोशिश

चूंकि 2002 के गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग मैंने की थी, साथ में निचली अदालत और हाईकोर्ट में भी चली सुनवाई को लंबे समय तक कवर किया था, इसलिए इस खबर में मेरी स्वाभाविक रुचि पैदा हुई. आखिर क्यों हटाई गई गवाहों, रिटायर्ड जज और कुछ वकीलों की सुरक्षा, इस उधेड़बुन को शांत करने के लिए एसआईटी, गुजरात पुलिस और राज्य सरकार से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों से बातचीत की. इस बातचीत के आधार पर जो तस्वीर बनी है, वो ये कि मामला सुरक्षा की चिंता से ज्यादा स्टेटस सिंबल को लेकर है, प्याले में तूफान खड़ा करने की कोशिश है.

अगर तथ्यों पर निगाह डालें, तो 2002 के फरवरी-मार्च महीने में हुए दंगों के बड़े मामलों को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक याचिका के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को ये आदेश दिया था कि जहां भी जरूरत हो, जिन गवाहों की जान को खतरा हो, उनको सुरक्षा दी जाए. इसी आधार पर गुजरात सरकार ने अगस्त, 2003 में महत्वपूर्ण गवाहों को चौबीस घंटे सुरक्षा कवच प्रदान किया.

इसके बाद गुजरात दंगों के नौ बड़े मामलों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2008 में विशेष जांच टीम यानी एसआईटी का गठन किया, जिसकी अगुआई सौंपी गई सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन को. राघवन की अगुआई वाली इस एसआईटी के सदस्य एके मल्होत्रा भी बनाये गये, जो सीबीआई के ही रिटायर्ड डीआईजी थे और अपने सेवा काल के दौरान बोफोर्स और चारा घोटाला सहित कई बड़े मामलों की जांच की थी.

एसआईटी की सिफारिश पर दी गई सुरक्षा

इसी एसआईटी को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज, जस्टिस अरिजीत पसायत की अगुआई वाली विशेष खंडपीठ ने एक मई 2009 के अपने आदेश के तहत ये निर्देश दिया कि गुजरात दंगों से जुड़े बड़े मामलों के महत्वपूर्ण गवाहों को सुरक्षा देने और किस व्यक्ति को वाकई सुरक्षा की जरूरत है, इसकी समीक्षा और निर्धारण के लिए गवाह सुरक्षा प्रारुप यानी विटनेस प्रोटेक्शन प्रोगाम बनाए. इसी विटनेस प्रोटेक्शन प्रोग्राम के तहत एसआईटी के अंदर एक विशेष सुरक्षा सेल बनाया गया, जिसकी जिम्मेदारी थी खतरे की आशंका के आधार पर किसी गवाह को सुरक्षा मुहैया कराना. ये किसी गवाह की मांग के आधार पर नहीं किया जाना था, बल्कि उसको वाकई कोई खतरा है या नहीं, इसकी समीक्षा करते हुए अगर जरूरत हो, तो सुरक्षा मुहैया करानी थी. इस आधार पर 2008-09 के दौरान एसआईटी की सिफारिश के आधार पर गवाहों को या तो गुजरात पुलिस या फिर सीआईएसएफ की सुरक्षा दी गई.

नरोड़ा पाटिया मामले में 32 लोगों को हुई सजा

एसआईटी ने जांच के बाद अपनी निगरानी में 2002 दंगों से जुड़े नौ मामलों में निचली अदालत में ट्रायल करवाया और फिर कई मामलों में अपील के तहत मामला हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक गया. इसी बीच 2012 में गुजरात दंगों के सबसे बड़े मामले नरोड़ा पाटिया में ज्योत्सनाबेन याज्ञ्निक ने 31 अगस्त 2012 को सजा सुनाई, जो उस वक्त अहमदाबाद सिटी एंड सेसन कोर्ट की प्रिंसिपल जज थीं. 97 लोगों की हत्या के मामले में कुल 32 लोगों को सजा सुनाई गई और 29 लोगों को संदेह का लाभ या फिर पर्याप्त सबूत नहीं होने के कारण बरी किया गया. जिन लोगों को सजा सुनाई गई, उनमें से एक बीजेपी की नेता और पूर्व मंत्री मायाबेन कोडनानी भी थीं, जिन्हें कुल 28 वर्ष की सजा दी गई थी.

नरोड़ा पाटिया मामले में सजा सुनाने वाली जज को मिली सुरक्षा

नरोड़ा पाटिया मामले में सजा सुनाने वाली इसी जज ज्योत्सनाबेन याज्ञ्निक ने एसआईटी के चेयरमैन आरके राघवन से सुरक्षा मांगी, अपनी जान पर खतरे की आशंका के मद्देनजर. राघवन की अगुआई वाली एसआईटी ने याज्ञ्निक की मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया और फिर उनकी सुरक्षा में चौदह सुरक्षाक्रमियों को तैनात करने का फैसला किया. ये सभी सुरक्षाकर्मी सीआईएसएफ के थे, उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए की सरकार थी. खास बात ये थी कि सुप्रीम कोर्ट ने विटनेस प्रोटेक्शन प्रोग्राम के तहत सुरक्षा देने की बात की थी, न कि कोई जज प्रोटेक्शन प्रोग्राम बनाने के लिए कहा था. तब भी याज्ञ्निक की मांग को पूरा करते हुए उन्हें मजबूत सुरक्षा दी गई, इसी तरह कुछ वकीलों को भी.

नरोड़ा पाटिया मामले में निचली अदालत का फैसला आने के कुछ वर्ष आगे-पीछे ही गुजरात दंगों के सात और बड़े मामलों में भी दूसरी सेसन अदालतों का फैसला आया. ये भी अनूठा तथ्य है कि इनमें से ज्यादातर मामलों में फैसला महिला जजों ने ही सुनाया. मई 2009 में, कौन सा सेसन जज किस मामले की सुनवाई करेगा, ये गुजरात हाईकोर्ट ने तय किया था. अगर ट्रायल के दौरान ही कोई जज रिटायर हो गया, तो नये जज को जिम्मेदारी दी गई. इसी प्रक्रिया के तहत मेहसाणा जिले के दो बड़े मामलों, दीपड़ा दरवाजा और सरदारपुरा में मेहसाणा की तत्कालीन सेसन जज एसएच श्रीवास्तव ने फैसला सुनाया, तो ओड-2 केस में एडिशनल सेसन जज की भूमिका में रहीं पी बी सिंह ने.

इन नौ बड़े मामलों में सबसे आखिर में नरोडा गाम केस में 20 अप्रैल 2023 को फैसला आया, सेसन जज शुभदा बक्षी ने इस मामले में फैसला सुनाया. खास बात ये भी है कि प्रांतिज एनआरआई हत्या और नरोड़ा गाम केस को छोड़कर बाकी सभी मामलों में निचली अदालतों से बड़े पैमाने पर आरोपियों को सजा हुई. जिन मामलों में कुछ आरोपी छूट गये, उसमें भी एसआईटी ने ऊपरी अदालत में चुनौती दी, प्रांतीज केस को छोड़कर, जहां मृतकों के रिश्तेदार तक गवाही देने के लिए नहीं आए.

ज्योत्सना याज्ञ्निक की तरह ही गुजरात दंगों के दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में फैसला सुनाने वाली इन तीनों महिला जजों में से किसी ने अपने लिए सुरक्षा की मांग नहीं की, न तो सेवा अवधि के दौरान और न ही रिटायरमेंट के बाद. यही नहीं, ओड-1 मामले में फैसला सुनाने वाले जज आरएम सरीन ने भी अपने लिए सुरक्षा नहीं मांगी, जो फिलहाल गुजरात हाईकोर्ट में जज हैं.

सवाल ये उठता है कि आखिर एसआईटी ने ज्योत्सना याज्ञ्निक या फिर उन गवाहों की सुरक्षा हटाने का क्यों फैसला किया. अगर एसआईटी और पुलिस सूत्रों की मानें, तो गवाहों की सुरक्षा हटाने का ये कोई पहला मामला नहीं है. इससे पहले भी गवाहों की सुरक्षा हटाई गई है.

जरूरत पड़ने या खतरे की आशंका पर देनी होती है सुरक्षा

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने फैसले में कहा था कि जरूरत पड़ने या फिर खतरे की अगर आशंका हो तो सुरक्षा दी जाए, ये नहीं कि किसी को आजीवन सुरक्षा घेरा दिया जाए. सुरक्षा किसको और कब तक देनी है, इसके लिए एसआईटी के अंदर बकायदा एक समीक्षा प्रक्रिया निर्धारित की गई. इस प्रक्रिया के तहत ही दो-तीन साल पहले कई गवाहों की सुरक्षा हटा दी गई थी. कारण ये था कि एक तो ज्यादातर मामलों में ट्रायल पूरी हो चुकी थी, दूसरा इन गवाहों की जान पर खतरा होने की कोई खुफिया रिपोर्ट नहीं थी और न ही ट्रायल अवधि के दौरान उन पर कभी कोई हमला हुआ था और न ही ऐसा कोई खतरा पैदा हुआ था.

सामान्य लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े लोगों, नेताओं और अधिकारियों के मामलों में भी यही फार्मूला अपनाया जाता है. जरूरत होती है, खतरा होता है, तो सुरक्षा का बड़ा घेरा तक दिया जाता है, जरूरत नहीं रहती तो हटा भी दिया जाता है. इसी आधार पर एसआईटी ने भी सुरक्षा घेरा हटाने का फैसला किया.

दूसरी बात ये भी ध्यान में आई कि इन गवाहों, वकीलों या फिर ज्योत्सनाबेन याज्ञ्निक, जो 2013 में ही रिटायर हो चुकी थीं, उनकी सुरक्षा के नाम पर तैनात किये गये तीन सौ से भी अधिक पुलिसकर्मी या तो महज खानापूर्ति कर रहे थे या कई बार तो ड्यूटी से भी गायब हो जाते थे, संबंधित गवाह से बातचीत कर. कई मामलों में तो राज्य सरकार को ये जानकारी भी मिली कि सुरक्षा के नाम पर तैनात जवानों का निजी और घरेलू कार्यों के लिए दुरुपयोग हो रहा था और इसके बदले लंबे समय तक ड्यूटी से गायब रहते हैं. जाहिर है, न तो गवाहों को अपनी जान का कोई खतरा सता रहा था और न ही ज्यादातर पुलिसकर्मी ड्यूटी भर रहे थे, बल्कि मजे काट रहे थे. इसकी वजह से अनुशासनहीनता का गंभीर संकट भी पैदा हो गया था.

सीआईएसएफ के जवान कर रहे थे पेट्रोलिंग की खानापूर्ति

यही नहीं, केद्रीय अर्धसैनिक बल, सीआईएसएफ की तरफ से ये मांग आई कि अगर जरूरत नहीं हो तो उनके जवानों और अधिकारियों को गवाहों की सुरक्षा के काम से फारिग किया जाए, ताकि ज्यादा महत्वपूर्ण और संवेदनशील मामलों में उनका इस्तेमाल हो सके. राज्य पुलिस और सीआईएसएफ के तीन सौ से भी अधिक अधिकारी और जवान दंगा मामले के गवाहों की सुरक्षा के नाम पर पंद्रह-बीस साल से लगे हुए थे. बड़े पैमाने पर तो जवानों की तैनाती उन इलाकों में भी की गई थी, जहां दंगे हुए थे और अगले बीस साल तक वो इन इलाकों में पेट्रोलिंग करने की खानापूर्ति कर रहे थे.

एसआईटी ने किया जवानों को सुरक्षा के काम से हटाने का फैसला

इन सभी पर विचार और सुरक्षा की जरूरतों की समीक्षा करने के बाद एसआईटी ने राज्य सरकार को बाकी बचे अधिकारियों और जवानों को भी गवाहों और ज्योत्सना याज्ञ्निक जैसे रिटायर्ड जज की सुरक्षा के काम से हटाने का फैसला किया. एसआईटी की इस सिफारिश के आधार पर ही इस महीने कार्रवाई हुई और सुरक्षा कवर हटा लिया गया. सिर्फ गुलबर्ग सोसायटी मामले में मारे गये पूर्व सांसद अहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी का सुरक्षा घेरा रखा गया है. जब भी वो सूरत में होती हैं, उन्हें सुरक्षा दी जाती है, जब विदेश अपने रिश्तेदारों के पास होती हैं, तो सुरक्षा घेरा की जरूरत नहीं होती है. जिनके पास से सुरक्षा घेरा हटा लिया गया है, उनके बारे में भी स्थानीय पुलिस को निर्देश है कि अगर जरूरत पड़े, तो उन्हें सुरक्षा दी जाए.

राज्य सरकार के इसी फैसले पर ज्योत्सना याज्ञ्निक और कुछ गवाहों ने सवाल खड़ा किया है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि सुरक्षा किसको और कब तक दी जाएगी या हटाई जाएगी, ये सुरक्षा घेरे में रहने वाला व्यक्ति तय करेगा या फिर वो एजेंसी जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने ये जिम्मेदारी दे रखी है? या फिर ये कि सैकड़ों की तादाद में जवान क्या जिंदगी भर के लिए लोगों की सुरक्षा में तैनात रखे जा सकते हैं, स्टेटस सिंबल के तौर पर, भले जरूरत हो या न हो? एसआईटी ने तो व्यापक समीक्षा के बाद अपना रुख तय कर लिया है, राज्य सरकार ने कार्रवाई कर दी है, जिन्हें तकलीफ या शिकायत है, उनके लिए अदालत के दरवाजे खुले हैं.

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Jai Lok
Author: Jai Lok

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