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पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता और मानस पूजा चित्त की शुद्धि करती है : द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वामी सदानंद सरस्वती से दैनिक जय लोक का साक्षात्कार

@परितोष वर्मा
जबलपुर (जयलोक)। सनातन धर्म के सर्वोच्च ध्वजावाहक द्वारका पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री सदानंद सरस्वती जी महाराज ने आम जनमानस से संबंधित दो महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डालते हुए मार्गदर्शन एवं ज्ञानवर्धन करते हुए जय लोक से चर्चा के दौरान यह कहा कि पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता। शंकराचार्य जी ने कहा कि किए हुए पुरुषार्थ का फल भले ही निकट भविष्य में ना मिले लेकिन यह तय है कि उसका फल मनुष्य को इस जीवन काल में या अगले जन्म में अवश्य प्राप्त होगा।
अपने साक्षात्कार में सरलतम भाषा में और एक जीवंत उदाहरण के साथ समझाते हुए शंकराचार्य जी ने  बताया कि वर्ष 2019 में 1 जनवरी को जन्मे एक बालक ने करोड़पति परिवार में जन्म लिया। उस बालक के जन्म के 6 महीने बाद ही कोरोना जैसी महामारी के विकराल स्वरूप के कारण उसके माता-पिता कालकवलित हो गए है। अब उसके पास सिर्फ  दादा-दादी ही बचे लेकिन वह 100 करोड़ से अधिक की संपत्ति का मालिक जन्म से ही बन गया। यहां इस जन्म में उसके द्वारा किये गए पुरुषार्थ का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन यह इंगित जरूर करता है कि उसके पूर्व जन्म में किया हुआ पुरुषार्थ उसके इस जन्म का फलकारी बना और वह जन्म के साथ ही करोड़पति के रूप में जनमित हुआ है।

सिर्फ  मनुष्य जीवन प्राप्त कर लेना ही पुरुषार्थ नहीं

शंकराचार्य जी ने कहा कि मनुष्य जीवन में जन्म लेना अपने आप में पुण्य का स्वरूप है। लेकिन आपके द्वारा किए गए एक बड़े पुण्य कार्य और छोटे-छोटे पापों की गणना इसमें शामिल है। मनुष्य जीवन प्राप्त कर लेना मात्र पुरुषार्थ नहीं है। उन्होंने उदाहरण स्वरूप इस बात की व्याख्या की कि एक ही तारीख पर दो बच्चे जन्म लेते हैं एक करोड़पति परिवार में पैदा होता है दूसरा मजदूर के घर में पैदा होता है। मजदूर घर में पैदा हुए बच्चों को मजदूरी करके ही अपना जीवन यापन भविष्य में करना पड़ता है। वहीं करोड़पति परिवार में जन्में बच्चे को सारी सुख सुविधा मिलती हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि आपके द्वारा किए गए एक बड़े पुण्य कार्य के कारण आपको मनुष्य जीवन तो प्राप्त हुआ लेकिन छोटे-छोटे पाप जब गणना में एकजुट होते हैं तो उसके आधार पर आपके आगामी जीवन का निर्धारण होता है। यह संभव है कि जीवन भर मजदूरी करने वाला मनुष्य अपने छोटे-छोटे पापों के कारण मनुष्य तो बना लेकिन परम सुख पाने के बजाय जीवन भर मजदूरी कर संघर्ष करता रहा। वहीं इस दिनांक को जन्मे दूसरे बच्चे ने करोड़पति के परिवार में जन्म लेकर अपने पूर्व के जन्म के पुरुषार्थ को सिद्ध कर दिया और सारी सुख-सुविधा प्राप्त कर रहा है।  शंकराचार्य जी ने स्पष्ट कहा कि किया हुआ पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता वह तात्कालिक रूप से लाभ नहीं देगा तो आने वाले समय में निश्चित रूप से लाभ पहुंचाएगा।

  सुख का मूल धर्म है

शंकराचार्य श्री सदानंद सरस्वती जी महाराज ने अपने साक्षात्कार में कहा कि वेदव्यास जी कहते हैं कि सुख चाहते हो तो धर्म का पालन करो। सुख का मूल धर्म है और अच्छे कर्म से धर्म की जड़े मजबूत होती हैं जो आगे चलकर अच्छा फल देती हैं। जैसे कि किसी वृक्ष की जड़ों को मजबूती प्राप्त होने पर वह छायादार वृक्ष भी बनता है और उससे फल भी उत्पन्न होते हैं। पुरुषार्थ प्रारब्ध को बदल सकता है लेकिन प्रबल पुण्य और प्रबल पाप इसके निर्णायक होते हैं। शंकराचार्य जी महाराज ने कहा कि पुरुषार्थ हमेशा अपना लाभ देता है लेकिन पुण्य और पाप के गुणांक में किए गए कायँ हमेशा इसके बाधक होते हैं। पुण्य का फल और पाप का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। धर्म का परिपालन ही एकमात्र उपाय है जो व्यक्ति के पुरुषार्थ को सामर्थ प्रदान करता है।

चित को जाग्रत करती है मानस पूजा

जिज्ञासा भरे एक प्रश्न के उत्तर में शंकराचार्य  श्री सदानंद सरस्वती जी महाराज ने कहा कि केवल मन को एकाग्र करने की आवश्यकता की परिपूर्ण स्थिति मानस पूजा को सफल बनाने में सक्षम है। शंकराचार्य जी ने कहा कि बिना सामग्री के पूजन बिना यंत्र तंत्र, बिना साधन संसाधनों के भी भगवान की प्राप्ति की जा सकती है। हमारे शास्त्रों में मानस पूजा का प्रावधान है और उसका विधान भी है। मानस पूजा में दीप प्रज्वलन,भोग अर्पण से लेकर प्रार्थना तक मानव स्वरूप में होता है। मानस पूजा का शुद्ध अर्थ है स्वच्छ और साफ मन से की गई पूजा जो मन के देवता को परमात्मा की आराधना में अर्पण करने में सहायक हो उसे मानस पूजा कहा जाता है। शंकराचार्य जी ने महादेव की पूजा उपासना के एक क्रम की संज्ञा देते हुए बताया कि जैसे महादेव की पूजा में इस बात का उल्लेख है कि देवी देवालय है और संचालक देवता है जिसे हम मन कहते हैं। मन से की गई पूजा को ही मानस पूजा कहा जाता है। ईश्वर की आराधना में देवता के लिए इंद्रियां अपने-अपने विषय का अर्पण करती हैं। जैसे नेत्र स्वरूप का अर्पण करता है, नाक सुगंध की आहुति देती है जीभ स्वाद की आहुति देती है। यह सब संकल्प मंत्र से ही पूर्ण होता है। प्रात: काल में शांत चित्त से मन लगाकर ध्यान पूर्वक की गई मानस पूजा मन में विराजे देवता को हर वस्तु अर्पण करती है। मानस पूजा में संकल्प का प्रावधान नहीं है समर्पण का प्रावधान है। मानस पूजा से मनुष्य के चित्त की शुद्धि होती है एवं चित्त शुद्धि के बाद मानस पूजा में शामिल हमारे ईश्वर /भगवान हमारे हृदय में प्रकाशित होने लगते हैं। मानस पूजा का मूल केवल मन की एकाग्रता पर केंद्रित है। मानस पूजा कहीं भी की जा सकती है और शुद्ध मन से की गई मानस पूजा का प्रतिफल भी सेवा करने वाले मनुष्य को प्राप्त होता है।

Jai Lok
Author: Jai Lok

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