राजेंद्र चंद्रकांत राय
(जयलोक)।
पत्रकारिता के प्रति अनन्य भाव वाली भक्ति रखने वाले अजित वर्मा का जन्म 10 अक्टूबर 1949 में हुआ था। उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि में अनोखी विविधता है। उन्होंने अपने को विज्ञान, साहित्य, राजनीतिशास्त्र और विधिशास्त्र के अनुशासन से गढ़ा। प्रतिभा का विस्फोट थे वे। अपनी उपस्थिति से जबलपुर को लगातार चौंकाते रहे। कितने ही सांस्कृतिक आँदोलनों, कितने ही जागरुकता आंदोलनों और न जाने कितने ही पत्रकारिक सजगता के आंदोलनों का जन्म और क्रियान्वयन उनसे हुआ।
जबलपुर के अनेक समाचार पत्रों में उन्होंने अपनी कलम चलायी और समाचारों को एक प्रकार की फडक़न प्रदान की। मैं उनसे पहली बार तब मिला था, जब वे नवीन दुनिया में थे। उनसे मिलना तो कम होता था, परंतु उनके सार्वजनिक जीवन वाले कलापों से अक्सर ही सामना होता रहता था। वे जागरुक किस्म के इंसान थे। अपने नगर जबलपुर के साथ उनका गहरा सरोकार था। उनका दिया एक विचार बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘जबलपुर सबका, जबलपुर का कौन?’ इस तरह उन्होंने जबलपुर के नागरिकों को अपने नगर के प्रति जवाबदेह बनाने का अहसास कराने वाला अभियान भी चलाया था।
इसी तरह एक बार यह हुआ कि मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की कई पीठें अलग-अलग नगरों में बनायी जाने वाली थीं, और इस तरह उच्च न्यायालय की एकात्म विशिष्टता को मिटा दिए जाने का अंदेशा पैदा हो गया था, तब वे अपनी कलम और भौतिक सक्रियता के साथ मैदान में उतर पड़े थे। उन्होंने तर्क दिया था कि यदि उच्च न्यायालय का विखंडन करना जनहित में है, तो सर्वोच्च न्यायालय का विखंडन भी क्यों नहीं कर देना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि चाह कर भी उच्च न्यायालय का विखंडन नहीं किया जा सका।
कई समाचार पत्रों में संपादकीय डेस्क सम्हालने के बाद उन्होंने अपना खुद का अखबार ‘दैनिक जयलोक’ 1993 में आरंभ किया और उसे उसके मुकाम तक पहुँचाने में कोई कसर बाकी न रखी। वह अब भी जारी है और सच्चिदानंद शेकटकर तथा परितोष वर्मा के संपादन में निरंतर आगे बढ़ रहा है।
वर्मा जी ने वकालत भी की थी और उसी दौर में ‘रिवीजन ऑफ गजेटियर्स’ के महत्वपूर्ण काम को अंजाम देने के लिए, सरकार ने उन्हें राजपत्रित अधिकारी वाला दर्जा प्रदान किया गया था। मप्र विद्युत मंडल की नीतियों और उपभेक्ता विमुखता के विरुद्ध उन्होंने लंबे अरसे तक अभियान चलाकर उसके सुथने ढीले कर दिए थे और तब राष्ट्रीय स्तर पर भी ज्यादा सार्थक विद्युत-नीति बनाने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा था। मदनमहल की पहाडिय़ों को तोडक़र वहां कालोनी बनाने का धंधा जिन दिनों अपने पूरे उरूज पर था, तब वही थे, जिन्होंने पर्यावरण और जबलपुर की विरासत की रक्षा तथा जबलपुर की श्वास नलिका मदन महल संग्राम सागर घाटी को बचाने के लिए लोगों को एकजुट करके सघन अभियान चलाया था। विधानसभा में भी उन्होंने इस मामले को उठवाया और तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जबलपुर विकास प्राधिकरण की योजना को रद्द कराया था। रानी दुर्गावती और राजा शंकरशाह रघुनाथशाह के बलिदान की गाथा को अपनी कलम से विस्तार देते हुए अजित जी ने उनके स्मारकों के निर्माण और विकास के पक्ष में जन आँदोलन को साकार किया था।24 जून 1971 को अजित जी ने जबलपुर में वीरांगना दुर्गावती के बलिदान दिवस के आयोजन की बारहा स्थित समाधि पर की थी। जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय कराने और लेडी एल्गिन अस्पताल का नाम रानी दुर्गावती के नाम से कराने का का भी किया। महापौर बाबूराव परांजपे से रानी दुर्गावती की प्रतिमा स्थापित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भी अजित जी ने निभाई। बाबूराव जी ने अजित जी को प्रतिमा अनावरण का संयोजक बनाया। 13 अप्रैल 1975 को बंगलादेश मुक्ति के सेना प्रमुख जनरल जगजीत सिंह अरोरा और महादेवी वर्मा ने दुर्गावती की प्रतिमा का अनावरण किया। वे धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों में भी सक्रिय थे और इस तरह पारंपरिक विचारों के साथ अपनी प्रगतिवादी दृष्टि का समन्वय बनाया करते थे। उनकी अपनी विचार-सरणि थी, जैसे कि प्रत्येक बुद्धिवादी की हुआ करती है। उनके पत्रकार-व्यक्तित्व की व्यापकता ही उन्हें उन जगहों पर भी ग्राह्य बना देती थी, जो वैचारिक रूप से भिन्न सरणि वाली होती थीं। ये अजित जी ही थे जो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती के शहर में बड़े आयोजन कराते थे और कामरेड महेंद्र बाजपेयी के अभिन्न सहयोगी बन उनके आयोजनों के प्रमुख वक्ता रहते थे।उन्होंने इराक पर होने वाले अनैतिक हमलों के विरोध में भी अपनी आवाज बुलंद करने में संकोच न किया था। 57 वर्ष पूर्व 4 फरवरी1967 को ‘मित्र संघ’ जैसी संस्था की स्थापना के माध्यम से वे गरिमामय सांस्कृतिक आयोजनों के लिए पहचाने गए और जबलपुर पत्रकार संघ को जीवंत संगठन बनाकर ‘पत्रकार भवन’ की अवधारणा को मूर्त रूप देने में अपनी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को याद किया जाता है। जब वे नव भास्कर के स्थानीय संपादक थे और प्रदीप पंडित संपादक, तब उसका साहित्य वाला परिशिष्ट कथाकार ज्ञानरंजन देखा करते थे। मैं ज्ञान जी की टीम में था और उन्होंने मुझे दो जिम्मेदारियाँ दी थीं, हर हफ्ते एक साक्षात्कार और रविवार को प्रसंग नाम से प्रकाशित होने वाले स्थायी स्तंभ का लेखन।
तब नवभास्कर के स्थानीय संपादक अजित जी से नियमित रूप से साप्ताहिक मुलाकातें होने लगी थीं। वे मितभाषी थे, पर जब बोलते थे, तब तार्किक रूप से सबसे ज्यादा सजग होकर सामने आया करते थे। हमारा मतैक्य न था, पर अच्छी बातचीत और कारगर बहसें उनके साथ मुमकिन थीं। उन्होंने समाचार पत्रों में अग्रलेख के तौर पर नियमित लेखन किया और कई पुस्तकें भी लिखीं। बंगलादेश का जब मुक्ति संग्राम चल रहा था, तब उनके रिपोर्ताजों का संकलन ‘लोकतंत्र सूली पर’ प्रकाशित हुआ था। जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम पर उन्होने ‘आहुति’ की रचना की थी। 1997 में जबलपुर में भयानक भूकंप आया था। उसने जो कहर बरपा किया था, जिंदगियाँ उजाड़ी थीं, लोगों को बेघर किया था, उस पर उन्होंने ‘अनहर्ड क्राइज’ जैसी किताब लिखी थी। भूकंप पीडि़तों को राहत दिलाने भोपाल और दिल्ली को एक कर दिया। अजित जी भूकंप की तबाही दिखाने दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल से चर्चा की और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री शरद यादव के माध्यम से प्रधानमंत्री गुजराल को जबलपुर भी बुला कर भूकंप की तबाही दिखलाई। ‘दिग्विजयी लोकनीति’ में उन्होंने लगभग एक दशक की सरकारी नीतियों और घटनाओं की व्याख्या प्रस्तुत की थी। ‘तहलका, हंगामा और हम’ में तहलका मीडिया के स्वामी से जुड़े सनसनीखेज मामलों की तहरीर पेश की गई है।जबलपुर अपने विविधतापूर्ण विचारों वाले व्यक्तित्वों पर गर्व करने वाला नगर है। उसका कोष विस्तृत और सघन है। जबलपुर का मिजाज और तासीर इन्हीं से बनता है। लोग आते जाएंगे और अपने किरदार से जबलपुर को नित नये आयाम देते रहेंगे। वे व्यक्ति की तरह आएंगे और अपना योगदान कर के लोक की तरह प्रस्थान कर जाएंगे। व्यक्ति से लोक हो जाने की यात्रा ही, जीवन की सार्थकता की कसौटी होती है। निजत्व को व्यापकता में विलीन कर देने वाले ही स्मरणीय बन जाते हैं। ऐसे लोगों में अजित वर्मा का स्मरण सदैव किया जाता रहेगा।
प्रणाम अजित वर्मा जी!
प्रणाम जबलपुर!!