जबलपुर (जय लोक)/चैतन्य भट्ट। कल खबर थी कि जबलपुर से मुंबई की इकलौती उड़ान 30 मार्च से बंद होने जा रही है। अचानक पता नहीं किन कारणों से करुणा उपजी और उसे रिशेड्यूल कर दिया गया। देश की औद्योगि टीवी की राजधानी मुंबई के लिए रोजाना इंदौर से 6 और भोपाल से 3 सीधी उड़ाने हैं। ग्वालियर तक से एक सीधी उड़ान है। जबलपुर से उड़ानें बंद होने का यह सिलसिला नया नहीं है। पहले भी पुणे, कोलकाता, चेन्नई और अहमदाबाद की उड़ानें कब बंद हो गई पता ही नहीं चला।
सवाल उठता है, क्या जबलपुर वाकई मध्यप्रदेश का हिस्सा है? आप कहेंगे, ये भी क्या अजीब सवाल है? शत प्रतिशत है। शायद प्रदेश का नक्शा निकाल कर भी दिखा दें। मगर साल दर साल जिस तरह का सौतेला व्यवहार इस शहर के साथ होता रहा है, उसे देखकर पूछने की जरूरत महसूस होती है, क्या वाकई यह मध्य प्रदेश का हिस्सा है?
सौतेले पन की यह कहानी प्रदेश के गठन जितनी ही पुरानी है। मध्य भारत, मालवा और भोपाल रियासत और अन्य क्षेत्रों के विलय से बने मध्यप्रदेश की राजधानी के लिए शहर की मजबूत दावेदारी थी। एन वक्त पर यह सौगात छीनकर अपेक्षाकृत छोटे से शहर भोपाल की झोली में डाल दी गई जो उस समय जिला भी नहीं था। महाराष्ट्र के गठन में नागपुर को दूसरी राजधानी होने का जो श्रेय मिला, जबलपुर के हिस्से वह भी नहीं आया। विकल्प के रूप में मिलीं उच्च न्यायालय और विद्युत मंडल जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के अंग भी धीरे धीरे अन्य शहरों के हिस्से आते चले गए।
स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर समूचे महाकौशल की आवश्यकताएं पूरी करने वाला शहर आज भी मोहताज है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधा छिन कर भोपाल के हिस्से चली गई। विक्टोरिया और मेडिकल की हालत किसी से छिपी नहीं है। कालोनियों में चौबीस सौ वर्ग फुट के प्लाट में चल रही तथाकथित निजी स्वास्थ्य सुविधाएं नियंत्रण के अभाव में पैसे बटोरने की मशीनें बन गई हैं। मजबूर आदमी अच्छी चिकित्सा सुविधा के लिए नागपुर का चक्कर लगाने के लिए विवश हैं। अच्छे स्वास्थ्य की धुरी मानी जाने वाली खेल सुविधाओं के लिए भी नतीजा सिफर है। इतना पुराना बड़ा और महत्वपूर्ण शहर एक ढंग के स्टेडियम का मोहताज है। रानीताल में इस मद में करोड़ों के खर्च से विकसित सुविधाएं शमशान नजर आती हैं।
अभी अभी ग्वालियर में हर साल लगने वाले व्यापार मेले के किस्से खबरों में भरे पड़े हैं। इससे ठीक पहले उद्योग विभाग ने इंदौर में विशाल इंवेस्टर समिट का आयोजन किया था जिसमें अरबों रुपयों के करार हुए। याद आता है कि जबलपुर में उद्योग विभाग ने ऐसा कोई आयोजन कब किया था ? छोड़िए भी, याद आ भी जाएगा तो उसमें किए गए लुभावने वादों का अंजाम दिल दुखा देगा। डिफेंस सेक्टर से संबंधित कुछ औद्योगिक संस्थानों की बात छोड़ दें तो मामला शून्य ही है। और उनमें भी ज्यादातर बड़े संस्थान बंद हो चुके हैं। रिछाई जैसे कुछ नाम बचे हैं मगर इंदौर भोपाल और ग्वालियर के औद्योगिक विकास के सामने उन का नाम लेते भी शर्म आती है।
अधोसंरचना विकास को लेकर भी तस्वीर ज्यादा अलग नहीं है। हवाई अड्डा मिल गया मगर उड़ाने गायब हैं। इंदौर भोपाल में मेट्रो रेल प्रगति पर है, जबलपुर का कहीं जिक्र भी नहीं है। सीवर लाइन और बरसाती पानी के निकास के काम ठप्प पड़े हैं। ले देकर एक फ्लाईओवर मिला है वह भी जाने कब पूरा होगा। स्मार्ट सिटी परियोजना पर खर्च की जा रही अरबों की राशि भृष्टाचार और कुप्रबंधन को लेकर विवादों में है। शहर के महत्वपूर्ण चौराहे महीनों सिग्नल सुधरने का इंतजार करते हैं। पानी सडक़ जैसी बुनियादी जरूरतों की बेहाली किसी परिचय की मोहताज नहीं है। तकरीबन शहर से होकर बह रही नर्मदा मैया का पानी मिलने तक में सालों लग गए।
विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था अच्छे अफसरों की पदस्थापना की बाट जोहती रहती है। लगता है, तमाम बड़े शहरों की आवश्यकताएं पूरी होने के बाद बचा खुचा हिस्सा ही शहर के नसीब में आता है। जो अच्छे और अनुभवी अफसर आते हैं, चंद दिनों की मेहमानी के बाद अन्य शहरों की नजर हो जाते हैं। बाकी भी इस शहर में पदस्थापना को वैकल्पिक व्यवस्था मानकर समय काटते हैं, नावां पीटते हैं और मौका मिलते ही अन्यत्र रवाना हो जाते हैं। और भी कितने दुखड़े हैं, कहां तक गिनाएं। सवाल उठना लाजिमी है। शहर से हो रहे इस सौतेलेपन का जिम्मेदार कौन है? जवाब जानने के लिए किसी विशेष प्रज्ञा की आवश्यकता नहीं है। स्वाभाविक उत्तर है, राजनीतिक नेतृत्व। एक पुरानी कहानी बिल्कुल सही उतरती है। एक मछुआरे से किसी ने पूछा, आपने मछलियों समेत बाकी सब बर्तनों को ढंक रखा है। ये केकड़ों का बर्तन खुला है। ये बाहर निकल कर भाग नहीं जाएंगे? मछुआरे ने हंस कर जवाब दिया, नहीं जो भी ऊपर आने की कोशिश करता है बाकी सब उसकी टांग खींच कर नीचे गिरा देते हैं। और कुछ कहने की जरूरत नहीं है, समझदार को इशारा काफी है।
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