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रघुबीर यादव : नैसर्गिक अभिनय का नया सोपान

(जयलोक)। बड़े निकष के अभिनेता रघुवीर यादव का जन्म 25 जून 1957 को जबलपुर में हुआ था। वे रांझी नामक उपनगर में रहा करते थे। अब भी उनका जबलपुर आना-जाना बना हुआ है। उनका बचपन एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं था। उनमें चंचलता, नटखटपन और कुछ नया कर बैठने की हुलक बनी रहती थी। इसी हुलक ने उन्हें निहायत साधारण से असाधारण बनने की तरफ एक तरह से धक्के का ही काम किया। वे एलएन यादव स्कूल में पढ़ते थे और अपनी शरारतों के लिए चौतरफा जाने जाते थे। यह उनके ख्यात होने की नर्सरी थी। शरारतों से मिली फुरसत का समय वे किसी पहाड़ अथवा पेड़ पर बैठकर बिताना पसंद करते थे। यह उनका एकांत भी था और जन-कोलाहल से विलग होकर प्रकृति के बीच रहना भी था। अपनी जगह से उठकर ऊपर जाने की तमन्ना का उपक्रम भी।
उनके मुहल्ले में ही एक दूधवाला था। वह एक खास तरह की लय में दूध बेचने के उद्देश्य से आलाप लिया करता था। इस आलाप ने रघुवीर यादव के मन को अपनी तरफ खींच लिया था। औरों को भी वह खींचता था, पर वे उसका अनुवाद दूध बेचने वाले की आमद के तौर पर ही करते थे। रघुवीर का उस आलाप के साथ तादात्म हुआ। वे उसकी तरह से ही आलाप लेने और गाना गाने में रमने लगे। फिर हुआ यह कि इसी अभ्यास ने उनके अंदर गीत-संगीत की बुनियाद तैयार कर दी थी।
उन दिनों जबलपुर में कव्वाली का एक खास दौर चलन में था। कव्वाली के मुकाबले हुआ करते थे। जबलपुर के कव्वाल लुकमान का इस विधा में बड़ा नाम हो चुका था। रघुवीर यादव में कव्वाली सुनने का भी चाव पैदा हो गया था। कव्वाली की रवायत यह है कि वह रात को दस बजे ,शुरू होकर अलस भोर के तीन-चार बजे तक चला करती है। कोई भी माता-पिता कच्ची उम्र वाले अपने बेटे को पूरी रात घर से बाहर रहने की इज़ाजत भला कैसे दे सकते थे। पर लगन तो लगन हुआ करती है। वह अपने लिए रास्ते खोज ही लेती है। रघुवीर यादव ने भी रास्ता खोज लिया था। घर के सभी लोग जब रात में सो जाया करते थे, तब वे चुपके से अपने बिस्तर से गायब हो जाया करते थे और कव्वाली सुनने का लुत्फ उठाने चले जाते थे।
उनके परिवार के पास पान की एक दूकान भी थी। पिता, पढऩे-लिखने से उकताए हुए अपने बेटे को उस पर बैठने के लिए कहा करते थे, ताकि वह अपनी आजीविका कमाने का हुनर सीख सके। रघुवीर यादव को पान की दूकान पर बैठने से कोई गुरेज न था, वे खुशी-खुशी बैठते थे, पर पान बेचने की बजाय वे उस जगह का इस्तेमाल अपने अंदर बर्फ की मानिंद जमा प्रतिभा को पिघलाने की खातिर किया करते थे। 1980 में जब मैंने बच्चों के लिए ‘अंकुर’ पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था, तब उनका एक इंटरव्यु उसी दूकान पर किया गया था। उनकी ‘मैसी साहब’ फिल्म आ चुकी थी और वे अपने नैसर्गिक अभिनय तथा उसके लिए मिले राष्ट्रीय अवार्ड के चलते मशहूर हो चले थे।
अगर आपके अंदर कोई कला उमग रही हो, तो वह आपको पहले से बनी-बनाई लीक पर जाने नहीं देती। जब सभी बच्चे पढक़र अच्छे ओहदे पाने की दिशा में अग्रसर हो रहे थे, तब रघुवीर के मन में पढ़ाई-लिखाई के प्रति गहरी उदासीनता का वितान तन रहा था। अभिभावक उन्हें विज्ञान पढ़ाकर डॉक्टर-इंजीनियर बनाने के सपने देख रहे थे, पर इसके बरक्स वे कला की तरफ मुखातिब थे। नतीजा यह हुआ कि वे दसवीं कक्षा में फेल हो गए थे। फेल होकर घर जाना दुश्वार हो रहा था। माता-पिता की उम्मीदों को धराशायी करके भला घर जाने की हिम्मत कौन कर सकता है। पैर घर की तरफ जाने के लिए न उठते थे। अब सवाल यह पैदा हुआ कि फिर क्या करें?
उनका एक अजीज दोस्त था। ऐसे मौकों पर दोस्त बहुत काम आते हैं। उसने सलाह दी कि घर जाकर पिटने से अच्छा होगा कि वे कहीं भाग जाएं। जब घरवालों का गुस्सा ठंडा हो जाए तो लौट आएं। रघुवीर को यह सलाह अनुकूल लगी। चंद रुपयों की पूंजी लेकर वे अनजाने पथ के यायावर बन गए। रास्ते से जाने वाले काफिलों के संग यात्रा की। उनके संग रहे, रमे और जो उन्होंने किया वह करते हुए रोटियों का जुगाड़ भी करते रहे। ऐसे ही एक काफिले में यात्रा करने के दौरान उनकी मुलाक़ात चलित नाटक कंपनी के तौर पर ड्रामे करने वाले पारसी थियेटर के लोगों से हो गई और वे उनसे जुड़ गए। उसके साथ लंबा समय बिताया। उनके संग 1967 से 1973 तक बहुत से गाँवों और कस्बों का भ्रमण किया। नाटकों में मंच बनाने से लेकर अभिनय करने जैसे महत्वपूर्ण काम को भी अंजाम दिया।
इस तरह उन्हें अपनी मेहनत और कला के बदले में कुछ रुपये मिल जाते। कंपनी जब कहीं दूर चली जाती तो साथ छूट जाता। जब पास के रुपये भी खत्म हो जाते तो रघुवीर अपने घर लौट आते। पर पैरों में चकरी थी, लिहाजा वे घर पर ज्यादा दिन नहीं टिक पाते थे। हफ्ते-दस दिनों में ही मन उखड़ जाता था। फिर से कहीं भाग जाने की हौस उमडऩे-घुमडऩे लगती थी। जब वे दूसरी बार भागे, तो 1973 में उनकी भेंट लखनऊ के रंगोली कठपुतली थियेटर से हो गई। एक साल उनके साथ रहे और दस्ताने वाली कठपुतलियों का प्रदर्शन करने में दक्षता हासिल की।
इन अनुभवों ने उनके अंदर के अभिनेता को मांजने का काम किया। वे अब पूर्ण रूपेण अभिनेता बनने की चाहना करने लगे थे। उन्हें पता चला कि यदि ढंग का थियेटर कर्म सीखना है तो उन्हें उसका प्रशिक्षण लेना होगा और नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा, दिल्ली इसके लिए सबसे वाजिब जगह है। वे वहाँ चले गए। 1977 से 1986 तक उन्होंने अभिनय की शिक्षा ग्रहण की और उसकी रिपर्टरी में भी रहे। इस दौरान उन्होंने कोई 40 नाटकों के दो हजार से भी ज्यादा प्रदर्शनों में हिस्सेदारी की। वे थियेटर के साथ उसकी समग्रता का हिस्सा बने, संगीत, सैट, वेशभूषा और मुखौटों के निर्माण को जाना-सीखा और उसमें अपना मौलिक योगदान भी किया।
‘मैसी साहब’ उनकी पहली फिल्म थी। इस फिल्म में मैसी साहब नाम वाले वास्तविक व्यक्ति का चित्रण किया गया था, जिसे हत्या करने के मामले में होशंगाबाद में फांसी दे दी गई थी। इसमें रघुवीर अंग्रेज सरकार के दफ्तर में काम करने वाले एक ऐसे अस्थायी कर्मचारी की भूमिका में थे, सरकारी काम को अंजाम देने के लिए, ईमानदारी के साथ कानून-कायदों को ताक पर रख देता है। उसके कामों से उसके अफसर खुश तो होते हैं ,पर वे एक मद की सरकारी रकम को दूसरी मद में खर्च कर देने के मैसी के कारनामे को गबन की श्रेणी में रखते हैं। वह बेरोजगार हो जाता है और मदारी वाले जैसे कामों को करके अपनी रोटी कमाता है। जब अंग्रेज अधिकारी को सडक़ का काम करने के लिए मजदूर नहीं मिलते, तब मैसी ही अपनी हवाबाजी से सौ से भी ज्यादा मजदूरों को काम करने के लिए मना लाता है। पर अपनी पत्नी के वापस चले जाने पर वह इतना व्याकुल हो जाता है कि हड़बड़ी में उसके हाथों एक आदमी मारा जाता है। रघुवीर यादव ने इस फिल्म में एक मासूम, ईमानदार और तिकड़म करके काम कर जाने वाले किरदार को अपने नैसर्गिक अभिनय से जीवंत बना दिया था। वह दर्शकों को हत्यारा या गबन करने वाला बेईमान प्रतीत ही नहीं होता। परंतु सरकारी कायदे उसका सब कुछ छीन लेते हें। जीवन तक।
मैसी साहब के बाद मीरा नायर की सलाम बॉम्बे, एक्टर आमिर खान स्टारर फिल्म लगान, वाटर में भी उन्होंने अभिनय किया। अंतिम तीनों फिल्मों के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया था। डियर फ्रेंड हिटलर में वे प्रधान भूमिका में थे। छोटे पर्दे पर रघुबीर यादव को पहचान धारावाहिक मुंगेरी लाल के हसीन सपने से मिली। मुल्ला नसरुद्दीन और अर्जुन पंडित में भी वे थे।
उन्होंने माया मेमसाब, मैसी साहब, रुदाली, आसमान से गिरा, ओ डार्लिंग ये है इंडिया, समर, संडे, डरना मना है, रामजी लंदन वाले, बिल्लू और दिल्ली 6 जैसी फिल्मों में संगीत दिया और गाया भी। चाचा चौधरी का शीर्षक गीत गाया। आमिर खान की पीपली लाइव में भदवई गांव की मंडली के साथ ‘महंगाई डायन…’ गीत गाया। उन्होंने पेप्सी, पार्ले, विम, कोटक महिंद्रा, आइसी कूल मिंट, कोक, मिडडे, बाघ बकरी चाय, क्रैक क्रीम, मैगी मेनिया, ब्रिटानिया आदि के विज्ञापनों के लिए गायन किया और अपनी आवाज भी दी। उन्होंने मध्यप्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग के विज्ञापन के लिए ‘एमपी अजब है, सबसे गजब है’ गीत को संगीत के साथ गाया भी।
उन्होंने घासीराम कोतवाल, छोटे सईद बड़े सईद, चौपड़ा कमाल नौकर जमाल और चाचा चौधरी के लिए संगीत, गीत और नाटक प्रभाग के लिए बैले भी तैयार किया है। दिल्ली 6 के लिए रामलीला द्वारा परिकल्पित, लिखित और संगीतबद्ध ‘मैगी मेनिया’ की रचना की और उसे गाया भी।
अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उन्हें सिल्वर पीकॉक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला है। उन्हें क्रिटिक अवार्ड, वेनिस फिल्म फेस्टिवल, 1986 और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार भी मिला है। न्यूटन फिल्म में भी उनका अभिनय अनोखा था।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न रघुवीर यादव को प्रणाम!
प्रणाम जबलपुर!!

Jai Lok
Author: Jai Lok

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