(जयलोक)। 1980 के आम चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की सत्ता फिर से देश में लौट आयी थी। उसने 353 सीटें हासिल की थीं और जनता पार्टी को केवल 31 सीटें ही मिल सकीं थीं, जबकि चरणसिंह के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सेक्यूलर को 41 सीटें हासिल हो गईं थीं। सीपीआईएम ने 37, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (अर्स) ने 13, सीपीआई ने 10, एआईडीएमके ने 2, डीएमके ने 16, शिरोमणि अकाली दल ने 1, आरएसपी ने 4 और फारवर्ड ब्लॉक ने 3 सीटें पाई थीं।जबलपुर से मुंदर शर्मा लोकसभा सदस्य चुने गए थे। वे जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ के संपादक थे। वे मूलत: बिहार से थे। 1977 की करारी पराजय के बाद अधिकतर ऐसे कांग्रेसी, जिन्होंने कांग्रेस से विधायक, सांसद और मंत्री पद सहित अनेक किस्म के फायदे पाए थे, घरों में बैठ गए थे। तब मुंदर शर्मा ने सामने आकर कमान सम्हाली और कांग्रेस के पक्ष में आँदोलनों की झड़ी लगा दी। जेल भरो आँदोलनों से कई बार जबलपुर जेल को भर दिया। जनवरी 1980 में कांग्रेस इंदिरा ने जबलपुर नगर निगम के चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा और दो-तिहाई बहुमत अर्जित किया था। वे महापौर चुने गए थे। फिर सांसद बने और जब उसी साल मध्यप्रदेश में अर्जुनसिंह की सरकार बनी, तो वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत किए गए।
उनके निधन से जबलपुर लोकसभा का 1982 में उपचुनाव हुआ। इस बार कांग्रेस ने सेठ गोविंददास परिवार की रत्नकुमारी देवी, जो राज्यसभा सदस्य भी रह चुकीं थीं, को अपना प्रत्याशी बनाया।
भारतीय जनसंघ 1980 में जनता पार्टी से बाहर आकर तब तक भारतीय जनता पार्टी का नया नाम अखि़्तयार कर चुकी थी। उसने अपने पुराने और लोकप्रिय नेता बाबूराव परांजपे को मैदान में उतारा। वे विजयी हुए और संसद में पहुँचे, वे जबलपुर में जनसंघ और भाजपा के आदि-नेता थे। वे जबलपुर के महापौर भी चुने गए थे। वे आज़ाद हिंद फौज में रह चुके थे। उन्होंने सात बार-बार लोकसभा चुनाव में शिरकत की और उनमें से चार चुनावों में विजय हासिल की थी।
इंदिरा जी की शर्मनाक हत्या के बाद 1984 में आम चुनाव हुए। इस बार कांग्रेस ने नरसिंहपुर से राज्य सरकार के मंत्री कर्नल अजय मुशरान को टिकट दिया। वे लंबे समय तक कांग्रेस की राज्य सरकारों में मंत्री रह चुके श्यामसुंदर नारायण मुशरान के पुत्र थे। भाजपा से बाबूराव परांजपे ने चुनाव लड़ा था। उन्हें 1,34,588 वोट मिले थे और जीत दर्ज कराने वाले अजय मुशरान को 2,56,911 वोट मिले थे।
1989 के आम चुनाव में यही प्रतिद्वंद्वी पुन: आमने-सामने आए और परिणाम 1984 वाला ही रहा। कांग्रेस को 1,71,381 और भाजपा को 2,73,163 मत मिले थे। 1991 में आम चुनाव हुए और मुकाबला कांग्रेस के श्रवण कुमार पटेल तथा भाजपा के बाबूराव परांजपे के बीच हुआ। श्रवण पटेल विजयी रहे, उन्हें 1,72,149 और बाबूराव परांजपे को 1,65,427 मत प्राप्त हुए थे। 1996 के आम चुनाव में बाजी पलट गई और भाजपा के बाबूराव परांजपे ने कांग्रेस के श्रवण पटेल को हरा दिया। भाजपा को 2,56,621 और कांग्रेस को 1,62,941 वोट मिले थे। 1998 में भाजपा के बाबूराव परांजपे ने 3,00,584 वोट हासिल कर कांग्रेस के 2,16,469 वोट पाने वाले आलोक चंयोरिया को हर दिया था। 1999 में बाबूराव परांजपे का निधन हो गया। 1999 में भाजपा ने राज्य सरकार में मंत्री रह चुकीं श्रीमती जयश्री बैनर्जी को उममीदवार बनाया। उन्होंने 3,00,584 मत लेकर कांग्रेस के 1,90,894 मत ही हासिल कर पाने वाले चंद्रमोहन को हरा दिया था। 2004 में भाजपा ने राकेश सिंह के रूप में नया चेहरा मैदान में उतारा। वे छात्र नेता रह चुके थे। उन्होंने 3,11, 646 मत लेकर, 2,12,115 वोट पाने वाले कांग्रेस के महापौर विश्वनाथ दुबे पर विजय पाई थी। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस ने जबलपुर विवि छात्र संघ के अध्यक्ष और दो बार होशंगाबाद से सांसद रह चुके रामेश्वर नीखरा को टिकट दी। उन्हें 2,37,919 वोट मिले और विजेता राकेश सिंह को 3,43,922 मत मिले थे। 2014 में भाजपा ने तीसरी बार राकेश सिंह को प्रत्याशी बनाया और कांग्रेस ने विवेक तन्खा को। राकेश सिंह ने तीसरी बार भी जीत हासिल की और तिकड़ी बनाई। उन्हें 5,64,609 वोट और तन्खा को 3,55,970 वोट मिले थे। 2019 में के आम चुनाव में भी 2014 के ही प्रतिद्वंद्वी दोहराए गए थे। और परिणाम भी पुराना ही रहा। राकेश सिंह को इस बार 8,26,710 और विवेक तन्खा को 3,71,710 वोट मिले थे। जीत का अंतर 4,54,744 रहा। 2023 के चुनाव में चार बार के सांसद राकेश सिंह को भाजपा ने विधायक का टिकट दिया और उन्होंने जबलपुर पश्चिम क्षेत्र से कांग्रेस के तरुण भनोत को पराजित किया। राकेश सिंह, प्रहलाद पटेल, फग्गनसिंह कुलस्ते और उदयप्रताप सिंह जैसे कई बार के सांसदों को भाजपा ने जब विधान सभा का टिकट दिया था, तब इसके दो संदेश मिले थे। एक तो यह कि भाजपा अपने दमदार उम्मीदवारों को मैदान में उतार रही है। हालांकि उसके सामने पराजय का वैसा खतरा न था। दूसरा संदेश यह रहा कि संसद में वरिष्ठ हो चुके सांसदों को वहाँ से शिफ्ट किया जा रहा है, ताकि नये लोगों को मौका मिल सके।