राजेंद्र चंद्रकांत राय
(जयलोक)। वह एक सांस्कृतिक आयोजन था। लोग आ चुके थे। कार्यक्रम आरंभ होने को था। सबकी नजरें मंच की तरफ थीं। पर तभी पीछे के दरवाजे पर एक आहट हुई। एक असमय वृद्ध हो चले मनुष्य के आगमन की आहट थी वह। वे सिर झुकाए और कठिनाई से अपने छोटे-छोटे कदमों को आहिस्तस-आहिस्ता बढ़ाते हुए चले आ रहे थे। निगाहें मंच से मुड़ीं और उनकी तरफ अपलक हो गईं। टकटकी लग गई। उस टकटकी में अपार आदर और विनीत सम्मान की हिलोरें थीं। वे चुपचाप आए, साधारण व्यक्ति की तरह और एक कुर्सी पर बैठ गए। वे अरुण पाण्डे थे।
वे अरुण हैं। सुबह की लालिमा से युक्त। वे पाण्डे हैं, थियेटर के पाण्डित्य से दमकते हुए। उन्होंने अपने जीवन की आधी सदी थियेटर के जरिये जबलपुर को अर्पित कर दी। जबलपुर में जिस नाटक विधा को स्कूली स्नेह सम्मेलन में प्रस्तुत किया जाने वाला बच्चों का एक खेल मात्र ही समझा जाता था, उस बचकानी समझ को उन्होंने वयस्कता प्रदान की। वे प्रौढ़ावस्था के उस पार जाने वाली ढलान की तरफ मुड़ चले हैं, पर थियेटर को जवान बनाने वाले वही हैं। ययाति ने अपने पुत्र से बुढापे के बदले जवानी ले ली थी, पर हमने जवानी देकर बुढ़ापा अर्जित करने वाले इस महादानी को देखा।
उन्होंने नाम मात्र की आजीविका के लिए पत्रकारिता की। कलम उधर चलती रही और मन इधर रमा रहा। थियेटर में। पर उनकी धमनियों में जो उष्ण रक्त बनकर सदैव प्रवहमान हैं, वे हैं श्रीमती पाण्डे। अरुण भाई ने थियेटर को अपने जीवन के जो पचास साल हमें दिए हैं, उसमें उनके सौ साल आहुति बनकर जुड़े हुए हैं। वे रीढ़ हैं, जिस पर अरुण जी का रंगकर्म तनकर खड़ा रहा है। वे नेपथ्य में तल्लीन थीं, इसलिये अरुण मंच पर तल्लीनता पा सके। वे मौन-साधना में रत थीं, इसलिये अरुण मंच की मुखर-साधना में लीन रह सके। वे उन पर समर्पित थीं। न्यौछावर थीं। दीवानी थीं। इसीलिये अरुण मंच पर अपने को होम कर देने की उर्जा पा सके। तो हम मंच की भाषा में मंच और नेपथ्य दोनों को जोडक़र ही अरुण पाण्डे के व्याकरण को पूरा कर सकते हैं।
जबलपुर जिले की भूमि नाटकों और रंगमंच के उच्चकोटि के इतिहास की भी रंगभूमि है। जबलपुर में कभी कल्चुरियों का राज रहा है। कल्चुरि सम्राट साहित्यानुरागी एवं कवियों के उदार आश्रयदाता थे। उनकी ख्याति और उदारता से आकृष्ट होकर सुदूर प्रांतों से संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंष के कवि उनकी राजधानी त्रिपुरी में खिंचे चले आते थे। कुछ कल्चुरि सम्राट स्वयं ही उच्च कोटि के कवि एवं नाटककार थे। इसके परिणामस्वरूप कल्चुरि राजसभा अपने समय का एक प्रमुख साहित्यिक केंद्र बन गयी थी।
त्रिपुरी के कल्चुरि सम्राट मायुराज ने ‘उदात्तराघव’ एवम् ‘तापसवत्सराज’ नामक दो संस्कृत नाटकों की रचना की थी। इन दोनों नाटकों को परवर्ती काल में बहुत ख्याति प्राप्त हुई। उस काल में राजषेखर सर्वाधिक प्रतिभावान कवि हुए हैं। वे सन् 918 में प्रथम युवराजदेव के दरबार में त्रिपुरी आ गये थे। उन्होंने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘विद्धषालभंजिका’ की रचना यहीं पर की। फिर इसका मंचन पुष्पावती नगरी यानी आज की बिलहरी में हुआ था। वहाँ पर रंगमंच के अवषेष मिले हैं।
कल्चुरिकालीन कवियों और नाटककारों की एक लंबी सूची है। बिल्हण हैं, तो गंगाधर भी हैं। विद्यापति हैं, तो नाचिराज और कर्पूवर्ष भी हैं। इस तरह नाटक रचने और उनके मंचन की परंपरा आज से एक हजार साल पीछे तक जाती है। भाई अरुण उसी परंपरा का विस्तार हैं। महत्वपूर्ण विस्तार। ऐतिहासिक विस्तार। उन्होंने लिखे हुए को साकार किया। सूने पड़े मंचों को गुलज़ार किया। नाटक देखने के रुझान से हीन समाज के अंदर रंग चेतना पैदा की।
यह उनका ही चमत्कार है कि आज जबलपुर में यह स्थिति है कि बौद्धिक और प्रगतिवादी दिखने के लिये नाटकों को देखना एक अनिवार्यता बन चुका है। लोग नाटक देखने के लिए टिकट खरीदने में अब गर्व महसूस करने लगे हैं। गर्मियों के दिनों में किशोरों का किलकता हुआ संसार, विवेचना रंग मण्डल के प्रशिक्षण शिविर की तरफ भागता हुआ नजऱ आता है। यह जादू किसने पैदा किया? तो इसका जवाब है, अपने संगियों के साथ रंग कला के जादूगर अरुण पाण्डे ने।
रंग संस्था विवेचना की स्थापना हरिशंकर परसाई की प्रेरणा से सातवें दशक में हुई थी। हिमांशु राय संस्था के सांगठनिक स्वरुप के निर्माता और अरुण भाई रंग कर्म की प्रदर्शनात्मक व्यंजना के शिल्पकार बने .
उन्होंने परसाई जी के अनेक निबंधों और कहानियों का मंचन किया , तीन सयाने , रामसिंह की ट्रेनिंग , निठल्ले की डायरी , चौक परसाई और मैं नर्क से बोल रहा हूँ आदि उनमें प्रमुख हैं .
कहानियों का ही नहीं , कविताओं का मंचन करने में भी उन्होंने लाजवाब काम किया है .
उदय प्रकाश की कविताओं का मंचन तो दर्शकों के लिए चमत्कारी ही सिद्ध हुआ था . गढ़ा मंडला राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती पर अरुण पांडे ने नाटक तैयार किया और वीरांगना के शौर्य और बलिदान का प्रभावी मंचन कराया।
अरुण पांडे कहानियां और कविताएँ भी लिखते हैं . उन्होंने अनेक रँग प्रयोग करने में भी अपना परचम फहराया है .
अपने लिखे एक धारावाहिक की शूटिंग के लिये 2017 में मैं मुंबई में था। अलग-अलग जगहों के सैट्स पर जाना पड़ता था। वहां पर मुझे ऐसे लडक़े मिले, जो दौड़ कर मेरे पास चले आते थे और बताया करते थे कि वे जबलपुर से हैं और उन्होंने विवेचना से रंगकर्म सीखा है।
तो बंधुओ, रंगकर्म की ऐसी नर्सरी का माली कौन है? हमारे बंधु अरुण पाण्डे!
तो ऐसे रंगऋषि को हम सबका प्रणाम!
प्रणाम जबलपुर!!