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माँ तो गोद में लेने तत्पर है, हमारे पुत्र बनने भर की देर है

 
 प्रिय आत्मन, गीता जयंती पर एक लेख लिख रहा था तो लगा कि 1000 शब्दों में अपनी बात नहीं कह सकता। तब पाँच लेखों की श्रृंख्ला लिखना प्रारंभ किया। इसी बीच विचार आया कि क्यों न इस श्रृंखला को निरंतर लिखा जाए जब तक गीता पूर्ण न हो जाए।  इन लेखों को अत्यंत सरल और व्यवहारिक रखने का प्रयास किया गया। प्रत्येक लेख को छोटे-छोटे उप शीर्षकों में बाँटा जा रहा है।
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म और अध्यात्म के साधक
‘गीता को जानें’ लेखमाला- (7)
संसार में हर जीव सुख पाना चाहता है, प्रेम पाना चाहता है, इसीलिए संसार के कार्यकलाप चलते हैं। किसी से प्रेम होने के दो ही कारण होते हैं – पहला यह कि उसकी सुंदरता, मधुरता, बाह्य रूप, गुण हमें मोहित करें और दूसरा कारण है हम उसकी महिमा से परिचित हों। सामान्यत: प्रेमी अपनी प्रेयसी को पहले कारण से प्रेम करता है और बेटा अपनी माँ को दूसरे कारण से। माँ कितनी भी बदसूरत हो, मारती-पीटती हो पर बच्चा उसी की गोद में जाकर शांति पाता है। राजा कैसा भी हो पर उसके अधिकार और उसकी महिमा के कारण सभी उसका आदर करते हैं, उसकी हर आज्ञा के पालन में प्रसन्नता अनुभव करते हैं।
यदि किसी प्रेम में यह दोनों ही कारण शामिल हो जाएँ तो फिर कहना ही क्या है। अब एक ऐसी अद्भुत माँ के बारे में सोचें जो सुन्दर है, सहज सरल है, गुणवान है, सुरक्षा देती है, आश्वासन देती है और पग-पग पर मार्गदर्शन करती है तो हम पाएँगे कि वह है गीता माता।साधकों की सामान्य शिकायत होती है कि गीता कठिन है, बेझिल है, मन नहीं लगता। इसका कारण है कि उनके हृदय में अभी गीता के माहात्म्य का ज्ञान नहीं है, गीता की सरलता और मधुरता से उनका परिचय नहीं हुआ है इनके अभाव में गीता के प्रति प्रेम नहीं उपजा है। जब प्रेम उपजता है तो मन गीता में डूब जाता है और तब गीता से सरस, सरल और सुंदर कुछ भी नहीं लगता। इस लेख में हम गीता के माहात्म्य और गुणों पर कुछ चर्चा करेंगे ताकि उन पर विचार करने से गीता के प्रति जिज्ञासा और प्रेम का प्रारंभ हो ।  गीता मत-मतांतरों से परे सर्वमान्य आध्यात्मिक ग्रंथ है। गीता यह नहीं कहती कि कौन सी माला लें – तुलसी की या रुद्राक्ष की, कैसा टीका लगाएँ – आड़ा या खड़ा, कौन सा पैर आगे बढ़ाएँ – दायाँ या बायाँ, कौन सा पुष्प अर्पित करें – गुलाब का या चमेली का आदि। प्रत्युत गीता तो वास्तविक तत्त्व का वर्णन करती है। यह तत्त्व सभी मनुष्य प्राप्त कर सकते हैं चाहे वह किसी भी देश, वेश, नस्ल या सम्प्रदाय के क्यों न हों (18.46)। जीवन जीते हुए, अपना कर्म करते हुए भौतिक समृद्धि और इसी जीवन के रहते हुए मुक्ति प्राप्ति का लक्ष्य रखती है गीता। महाभारत के एक श्लोक में गीता की महिमा बताते हुए कहा गया है – गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मात् विनि:सृता।। अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण के मुखकमल से निकली इस गीता को भलीभाँति आत्मसात कर लिया जाए तो फिर किन्हीं अन्य शास्त्रों का अध्ययन करने की जरा भी आवश्यकता नहीं। वैष्णवीय तंत्रसार के एक श्लोक में गीता के महत्व का गायन इस प्रकार किया गया है – सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:। पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
अर्थात् मानो सभी उपनिषदें गायें हैं, गोपालनंदन उन्हें दुहने वाले ग्वाला हैं, अर्जुन बछड़ा है, गीता ही दूध रूपी अमृत है और शुद्ध चित्त के धर्म जिज्ञासु उसे पीते हैं। एक श्लोक में कहा है – भारतामृतसर्वस्वं विष्णोर्वक्त्राद् विनि:सृतम। गीतागङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।। अर्थात् गीता भगवान् कृष्ण के मुखारविन्द से नि:सृत हुई दिव्यवाणी है यह महाभारत रूपी अमृत का सार है जिसके पान से पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है। भगवान् ने स्वयं कहा है कि गीता तो मेरा हृदय है – गीता मे हृदयं पार्थ । भगवान् के हृदय में सम्पूर्ण सृष्टि के लिए जो करुणा, प्रेम है वही गीता के रूप में प्रकट हुआ है। गीता में प्रवेश के लिए हम गीता से माता के रूप में प्रार्थना करते हैं कि हे माता, मैं तुम्हारा अनुसंधान करता हूँ – अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषणीम्। वेद अधिकारी व्यक्तियों के लिए हैं, उपनिषद् जानने के लिए तीव्र मेधा की आवश्यकता होती है, ब्रह्मसूत्र विद्वानों के विषय हैं, इन सभी के अध्ययन मनन के लिए बहुत से विधि और निषेध (स्रशह्य ड्डठ्ठस्र स्रशठ्ठह्ल’ह्य) होते हैं परन्तु गीता का द्वार प्रत्येक स्त्री-पुरुष, प्रत्येक वर्ण और प्रत्येक सामाजिक स्तर के व्यक्तियों के लिए खुला है (9.32) ।
गीता भविष्य का दावा नहीं करती। वह कहती है कि अनन्त आनन्द का सागर तो अभी और यहीं इसी संसार में है, तुम आओ और अनुभव करो (5.26)। मनुष्य जहाँ है, जैसा है, वैसे ही रहते हुए और जो कार्य कर रहा है वही कार्य करते हुए गीता के माध्यम से अपना कल्याण कर सकता है (18.46)। गीता की संस्कृत अत्यंत सरल, सहज है। हिन्दी जानने वाला भी थोड़े से प्रयास से गीता की संस्कृत को बिना अनुवाद के यथावत् समझ सकता है। गीता में दो तरह के श्लोक हैं जिन्हें लयबद्ध रूप से गुनगुनाया जा सकता है। श्री राधाकृष्णन कहते हैं कि विश्वरूप दर्शन की अनुभूति को शब्दों में नहीं उतारा जा सकता पर गीता ने इस असंभव कार्य को कर दिया है। काव्यात्मक वर्णन इतना उच्च है कि पढ़ते हुए रोमांच हो जाता है, सारा दृश्य अंतर्मन में प्रकट हो जाता है। मात्र 700 श्लोकों में जीव और जगत् का सारा रहस्य प्रकट कर देना उच्चतम साहित्यक कौशल का प्रतीक है।
भगवान् की वाणी होने के कारण मृत्यु के समय गीता सुनना अच्छा है परन्तु उससे भी अच्छा है कि जीवन रहते गीता पाठ करते रहें और पाठ के समय यह भाव रखें जैसे भगवान् ही हमारे कंठ में विराजमान होकर बोल रहे हैं। ईश्वर अंत समय में हमारे साथ रहें उससे अच्छा है पूरे जीवन भर साथ रहें। उससे भी अच्छा है कि जीवन के हर पग पर ईश्वर को अपना सारथी बनाए रखें अर्थात् युवावस्था में ही गीता का सहारा ले लें और फिर जीवन भर प्रत्येक परिस्थिति का पुरुषार्थ से सामना करें (2.3) और अंत में परम सत्ता के समक्ष पूर्ण समर्पण कर दें (18.65,66)।
गीता कहती है कि अपने उद्धार और पतन के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं (6.5)। इसलिए गीता में सर्वोच्च आध्यात्मिक प्रजातंत्र है, वह किसी से कोई जोर-जबरदस्ती नहीं करती है। गीता तो यहाँ तक कहती है कि जिसे सुनने की इच्छा न हो उसे गीता नहीं सुनानी चाहिए (18.67)। गीता की समाप्ति पर भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि तुमने सब सुन लिया अब जैसी इच्छा हो वैसा करो – यथेच्छसु तथा कुरु (18.63)। जो सत्य है उसे प्रचार-प्रसार की जरूरत नहीं होती। असत्य को ही अपनी दुकानदारी के लिए सत्य होने का आडंबर करना पड़ता है। सत्य का आकर्षण इतना प्रबल है कि जो गीता से जुड़ जाता है वह अर्जुन की तरह स्वमेव कह उठता है कि मैं संदेहरहित हो गया हूँ और अब आपकी आज्ञा का पालन करूँगा – करिष्ये वचनं तव (18.73)। सार यह है कि हम बालक बनकर गीता माता के पल्लू को पकड़ कर तो देखें फिर हमें गोद में उठाने का कार्य तो वह स्वयं कर लेगी। (क्रमश:)

 

जरूरत पड़ी तो समिति सदस्यों की संपत्ति कुर्क कर चुकाया जाएगा किसानों का पैसा

 

Jai Lok
Author: Jai Lok

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