हिंदी और उर्दू में जो सदियों का बहनापा है जो सौहार्द रहा है भाषाई तौर पर, जो दोनों की अनुमन्य रासायनिकी है, उसी का नतीजा है कि वली दकनी, मीराजी, मीर, मिर्ज़ा गालिब, मोमिन, इकबाल, हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी, फिराक गोरखपुरी व फैज़ अहमद फैज़ की ग़ज़ल की परंपरा और हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, त्रिलोचन, गुलाब खंडेलवाल, बलवीर सिंह रंग, दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परंपरा ने मिल कर ग़ज़ल को आज ऐसा रूप दिया है कि उसमें जीवन समाज और अपने वक्त के मिजाज को बखूबी चंद लफ्जों में कह देने की सिफत आ गयी है. जो ग़ज़ल कभी तवायफों के कोठों और खूबसूरती के बयान में परवान चढ़ी, जैसे हिंदी की रीतिकाव्य की पदावलियां वह ग़ज़ल आज किसानों के पसीने और मजदूरों, मजलूमों की जद्दोजहद का भाषा लिख रही है.
ग़ज़ल की इस परंपरा ने जहां आधुनिक उर्दू शायरी को एक नये तरीके से संस्कारित परिमार्जित किया है तथा जमाने की दुश्वारियों को पढ़ने और निरखने का उसमें माद्दा पैदा किया है – और आधुनिकता के पैरोकार नासिर काजमी, नजीर बनारसी, नाजिश प्रतापगढ़ी, वामिक जौनपुरी, परवीन शाकिर, अहमद फराज़, कतील शिफाई, शहरयार, जफर गोरखपुरी, बशीर बद्र, मुनव्वर राना, फ़जल ताबिश, मुलफ्फर हनफी, राहत इंदौरी, हसीब सोज, जावेद अख्तर, कौसर सिद्दीकी जैसे मकबूल शायर दिए हैं तो हिंदी के लेखकों को ग़ज़ल की सिन्फ की तरफ नए आगाज के साथ बढ़ने का अनुकूल अवसर दिया है.
आधुनिकता या जदीद शायरी की इस फसल में जहां नाजुकी है, गहरे अहसासात हैं, इंसान की उदासी, हँसी और विडंबनाओं के चित्र हैं, समय-समाज है, ताल्लुकात की रोशनी में तिरते नए नए बिम्ब हैं, वहीं इसके फार्म और कन्टेंट यानी रूप और अंतर्वस्तु में भी बारीक से बदलाव नजर आते हैं. कहीं शायरों में रूहानी तत्वों का समावेश मिलता है तो कहीं भक्त कवियों की सी अंतर्वेदना भी नजर आती है. आधुनिकता का यह मंजर नासिर काजमी की गजलों से होता हुआ आज जिस शक्लो-सूरत में मौजूद है उसने शायरी में एक्सपेरिमेंटेशन का जज्बा पैदा किया है. नई बहरें, नई शक्लोसूरत की सतरें, अछूते विषय, नए अंदाजेबयां के मिसरे और हालात को बयान करने का नया नज़रिया और सबसे बढ़ कर जिसे संस्कृत के आचार्यो ने कविता के हेतुओं और प्रयोजनों के साथ काव्य की अहमियत और उसके सौदर्यबोध को परखनेकी कसौटियां निर्मित की थीं, यानी रस, ध्वनि, रीति और व्यंजना- उसका अंतर्भाव जदीद शायरी पर भी पड़ा और वह धीरे-धीरे जनोन्मुख हुई. वह बाद में चल कर नुक्कड़ नाटकों में भी इस्तेमाल की चीज बनी और उसमें इंसानी सुख-दुख के जज्बात भी गहरे भाव बोध के साथ विकसिल होते गए.
‘माथे पर तिलक लगा लेता, जनेऊ धारण कर लेता’- बनारस देख मिर्जा गालिब ने ऐसा क्यों कहा
इसी के समानांतर अमीर खुसरो की राह पर चलती हुई हिंदी या हिंदवी की ग़ज़ल का प्रादुर्भाव हुआ जिसने आधुनिक होती हिंदी को तो एक नया रूप दिया ही, आधुनिक शायरी को भी काव्य के बड़े फलक हेतु प्रयोजन शैली और शिल्प से जोड़ा. किन्तु जहां उर्दू में ग़ज़लों के विकास की सदियों की अपनी परंपरा है जो आज तक के शायरों कवियों को खाद-पानी मुहैया कराती है, वैसा स्पष्ट विकासक्रम या विरासत हिंदी या हिंदवी के कवियों के पास नहीं है. किन्तु आधुनिक खड़ी बोली के साथ जैसे कविता व गद्य की तमाम शैलियों में हिंदी का लेखन धीरे-धीरे परवान चढ़ता गया. ग़ज़ल ने हिंदी के कवियों को भी तेजी से आकृष्ट किया. जैसा कि कहा ही है कि यह उर्दू और हिंदी का बहनापा है कि दोनों के अल्फाज और अंदाजेबयां मिल कर जो भाषाई सुकून पैदा करते हैं वह न तो खांटी उर्दू में है न खांटी हिंदी में. गांधी भाषा के जिस मध्यम मार्ग के हिमायती थी, हिंदी के अधिकांश शायर इसी नक्शे कदम पर चलते नजर आते हैं.
कहा जाता है कि कबीर में भी एक तरह की ग़ज़लियत थी. ‘हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या’ कहने वाले कबीर को जाने-माने शायर ज्ञान प्रकाश विवेक के एक उल्लेख के अनुसार उर्दू के एक आलोचक ने अपनी किताब में उर्दू की पहली ग़ज़ल बताया है. यह सच है कि भाषाई तौर पर हिंदी को खड़ी करने में अमीर खुसरो और कबीर का अपना योगदान है. किन्तु उन्हें उर्दू ग़ज़ल की विरासत से जोड़ना जरा नाइन्साफी होगी जैसी कि हर आधुनिक अनुसंधान को वेद-पुराणों में खोजना. यह भी कहना गलत न होगा कि हिंदी और उर्दू ने एक दूसरे से काफी कुछ सीखा है, एक दूसरे का सत्व अपने भीतर उतारा है तभी कबीर में ग़ज़लियत और अमीर खुसरों में रूहानी तत्व नजर आते हैं जो उन्हें सूफीमत के कवियों से जोड़ते हैं. ग़ज़ल की जिस बुनियाद को आधुनिक हिंदी के निर्माताओं में अग्रगण्य भारतेंदु हरिश्चंद ने रसा के उपनाम से आगे बढ़ाया, प्रेमघन जैसे कवियों ने उसे सींचा, पंडित श्रीधर पाठक, हरिऔध और निराला ने उसे आगे बढ़ाया और हिंदी के लबो-लहजे से मालामाल किया, जयशंकर प्रसाद तक ने इस ग़ज़ल प्रवाह को अपने काव्य में आजमाया. जिस हिंदी के कवि दुष्यंत कुमार को अनेक महत्वपूर्ण संग्रहों ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए वन का वसंत’ और ‘सूर्य का स्वागत’ के बावजूद ढंग से कविता के इतिहास भूगोल में पहचाना न गया, उन्हें आपातकाल के दौर में लिखी ग़ज़लों के संग्रह ‘साये में धूप’ ने एकाएक हिंदी की दुनिया में उछाल दिया. इस संग्रह की लगभग चौसठ-पैंसठ ग़ज़लें ग़ज़ल की दुनिया का कंठहार बन गयीं. ग़ज़ल के परिदृश्य पर अचानक दुष्यंत कुमार छा गये जो बड़ी बेकली से यह लिख रहा था: यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है/ चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए.
पहली बार सत्ता को प्रश्नांकित करती ग़ज़लों की आमद आधुनिक शायरी में उबाल पैदा करने वाली थी. साठ का दशक आजादी के बाद के मोहभंग का दशक था जिसने हिंदी के कवियों को बुरी तरह प्रभावित किया. मुक्तिबोध के बाद धूमिल में लोकतंत्र की विफलता को सवाल उठाने का जो जज्बा था वही जज्बा आगे चल कर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों की पृष्ठभूमि बना और उसने सत्ता की चकमक, जगमग को यह कहते हुए नकारा कि- ये रोशनी है हक़ीकत में एक छल लोगो.
पुस्तक के कवर डिजाइन के लिए इमरोज ने रुपये मांगे तो मैं उछल पड़ा- भगवानदास मोरवाल
इसी राह के अगले राही थे गोंडा के परसपुर के एक गांव के रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी जिसने सत्ता और व्यवस्था की हकीकत को अपनी ग़ज़लों में खोल कर रख दिया. ‘उतरा है रामराज विधायक निवास में’ कहते हुए ब्लेड की तरह चीरती उनकी भी चौसठ-पैंसठ ग़ज़लें जनता की जबान पर विराजने लगीं. किसानी चेतना में पगा यह शायर भुखमरी की भाषा को नये मुहावरे दे रहा था.
लेकिन ग़ज़ल केवल दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी जैसे शायरों तक सीमित नहीं रही, मकबूलियत उन्हें जरूर मिली पर ग़ज़ल की कसौटियों पर हिंदी के अनेक शायर नए कथ्य और नए मुहावरे व अंदाजे बयां को अंजाम दे रहे थे. बलवीर सिंहरंग का रंग कवि सम्मेलनों में जुदा होता था तो रामावतार त्यागी की ग़ज़लों में गीतात्मकता की खुशबू बिखरने लगती. त्रिलोचन ने तो अपने काव्य में विदेशी काव्य शैली सानेट को इस कदर अपनाया कि उसे हिंदी का जैसे देशज लिबास ही पहना दिया. वे सानेट से ही हिंदी में पहचाने गए और बिना कोई महाकाव्य लिखे एक महाकवि की आभा प्राप्त की. दूसरी तरफ उनमें शायरी का भी अटूट जज्बा था. ‘गुलाब और बुलबुल’ उनकी ग़ज़लों का संग्रह था जिसमें ग़ज़ल आमफहम हिंदी जबान में अपना सफर तय करती है और बताती है कि उर्दू ग़ज़ल की सदियों की विरासत और आधुनिकता बोध की शायरी ने हिंदी के कवियों को भी खासा प्रभावित किया. शमशेर ग़ज़लें भी प्रयोगधर्मिता का पर्याय हैं. शमशेर का हाथ उर्दू में भी रवां था इसलिए उनकी ग़ज़लों में उर्दू की रवानगी भी काबिले गौर है.
आज हिंदी में ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ी है. उर्दू की लिपि जाने बिना भी लोग ग़ज़ल लिख रहे हैं. ‘वो ग़ज़ल किसी से तो कम न थी’ ऐसे ही हमारे समय के हिंदी उर्दू के कुछ नामचीन शायरों की ग़ज़लों का संकलन है जिसमें कविता की खुशबू है, शायरी की खुशबू है, हिंदी और उर्दू जबान की खुशबू है. इसमें शामिल शायरों की उम्र सौ से साल से लेकर तीस साल तक की है यानी कम से कम तीन पीढ़ियों के शायर इसमें मौजूद हैं. यहां हिंदी उर्दू का भेद नहीं है क्योंकि यहां हिंदी के जानेमाने कवि शायर प्रो. रामदरश मिश्र है तो हिंदी के लबो लहजे के शायर गुलाब खंडेलवाल भी जिनकी शायरी पढ़ते हुए एक अलग तरह की गंगाजमुनी मिठास का अहसास होता है.
गुलाब खंडेलवाल की ग़ज़लों की भूमिका त्रिलोचन ने लिखी है. यह साल त्रिलोचन और रामदरश मिश्र की जन्मशताब्दि का भी है. रामदरश मिश्र जी हमारे बीच मौजूद हैं तो गुलाब खंडेलवाल कुछ बरस ही पहले ही गुजरे हैं. किन्तु ग़ज़ल की खिदमत में दोनों कवियों का अपना अपना योगदान रहा है.
इस तरह रामदरश मिश्र, गुलाब खंडेलवाल से होती हुई ग़ज़ल के इस सफर में आज के तमाम बेहतरीन शायर कवि मौजूद हैं यथा; कुंवर बेचैन, अदम गोंडवी, शीन काफ़ निजाम, ज्ञान प्रकाश विवेक, मुनव्वर राना, राजेश रेड्डी, माधव कौशिक, ओम निश्चल, अब्दुल रहमान मंसूर, सुरेंद्र चतुर्वेदी, इंदु श्रीवास्तव, आलोक यादव, रेणु हुसैन, डॉ. हरिओम और निर्मल नदीम. बेशक हमारे समय में ग़ज़ल लिखने वालों की एक लंबी तादाद है. एक चयन में सारे शायर एक साथ नहीं हो सकते. किन्तु जो भी शायर यहां हैं वे ग़ज़ल के परिदृश्य में ग़ज़ल की बदलते हुए स्थापत्य, नई नई बहरों, मिजाज, भाषाई अन्वीक्षण, नए नए प्रयोगों, और कथ्य के सुविस्तृत वितान की एक झॉंकी उपस्थित करते हैं.
एक दौर था ग़ज़लों में दुष्यंत कुमार का. धूमकेतु की तरह वे आए और फिजां में छा गए. इमरजेंसी के हालात में उनकी ग़ज़लें थके हारों के लिए नए पथ का प्रस्थान बिन्दु बन गयीं. कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो —शेर लोगों की जबान पर चढ़ गया था. कोई सियासतदां हो या संचालक—सभा समारोहों में जान फूंकने के लिए वह इस शेर का उद्घोष करता. कह ही चुका हूं कि ‘साये में धूप’ आते ही दुष्यंत की अन्य पुस्तकें आंगन में एक वृक्ष, जलते हुए वन का वसंत, आवाजों के घेरे — नेपथ्य में ओझल हो गईं. केवल ‘साये में धूप’ रह गया उनकी कीर्ति पताका बन कर. उसके बाद शायर तो बहुत आए, एक से एक पर उनके और अदम गोंडवी के बीच कोई ऐसा शायर न हुआ जिसे ऐसी अपार लोकप्रियता मिलती. जिस जमीन पर धूमिल ने अपनी कविताएं लिखीं थी, ‘पटकथा’ जैसी कविताएं और लोकतंत्र को जिस तरह उन्होंने सवालों के घेरे में लिया, उसकी शायराना फलश्रुति दुष्यंत कुमार और बाद में अदम गोंडवी में देखी गयी. लोग दोनों कवियों के दीवाने हो उठे. दुष्यंत कुमार के कोई दो दशक बाद फर्रुखाबाद से एक शायर (शिव ओम अंबर) उभरा जो शायरी की आमफहम जबान को तत्सम के आभिजात्य में बदलता हुआ एक नई इबारत लिख रहा था. देखते देखते यह शायर जैसे भारतीयता की परंपरा का अनुगायक बन गया. उन्हीं दिनों एक प्रकाशन से उसकी ग़ज़लों का संग्रह ‘आराधना अग्नि की’ हाथ लगा तो एकाएक उसके कवित्व के विपुल आयामों से परिचय मिला.
समाज के पाखंड को बेपर्दा करता स्त्री विमर्श का नाटक है ‘बाबूजी’
हमारे समय में एक से एक बेहतीन शायर हैं – गुलज़ार, वसीम बरेलवी, बशीर बद्र, जावेद अख्तर, बालस्वरूप राही, शिवओम अंबर, विज्ञान व्रत, देवेंद्र आर्य, ध्रुव गुप्त, शकील आजमी, मोइन शादाब, शाहिद अंजुम, दीक्षित दनकौरी, हरेराम समीप, विजय किशोर मानव, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ओम प्रकाश यती, केशव शरण आदि. ग़ज़ल की तरक्की में इनका योगदान अविस्मरणीय है. इधर लंबे अरसे बाद हिंदी के ऐक्टीविस्ट शायर हरजीत की ग़ज़लें ‘मुझसे फिर मिल’ शीर्षक से देखने को मिली जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुई हैं. इन ग़ज़लों में वही जज्बा है जो कभी दुष्यंत कुमार और धूमिल और गोरख पांडे की कविताओं में मिलता था.
जो लोच गद्य की भाषा में दोनों जबानों के मिलन से पैदा होती है वही लोच लचक और चारुता हिंदी और उर्दू की शायरी में नज़र आती है. इस संकलन में शामिल ग़ज़लों का मिजाज इन कुछ उदाहरणों से पहचाना जा सकता है :
हाथ कुछ आया न, तू फसलें उगाता रह गया
चर गए पशु खेत, तू पंछी उड़ाता रह गया
देश तलघर में सुलाकर देश वे बनते गए
ओर तू पागल वतन के गीत गाता रह गया (रामदरश मिश्र)
कुछ हम भी लिख गए हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में
दुनिया ने था किया कभी छोटा सा इक सवाल
हमने तो जिंदगी ही लुटा दी जवाब में (गुलाब खंडेलवाल)
भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलोह
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो चुकी
अब उसे बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो (अदम गोंडवी)
मेरे अल्फाज़ में असर रख दे
सीपियां हैं तो फिर गुहर रख दे
कल के अखबार में तू झूठी ही
एक तो अच्छी सी खबर रख दे
तू अकेला है बंद है कमरा
अब तो चेहरा उतार कर रख दे (शीन काफ़ निज़ाम)
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझको अगर मिल जाए
इश्क को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना (कुंवर बेचैन)
विवशताओं का हर कोई ज़हर पीता नज़र आया
मुझे हर शख्स में सुकरात का चेहरा नजर आया
भला मैं उस बशर से प्यार के अनुबंध क्या करता
कि जो हर वक्त अपने आपसे रूठा नज़र आया (ज्ञानप्रकाश विवेक)
न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़जल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ
ग़जल वो सिन्फे नाजुक है जिसे अपनी रफाकत से
वो महबूबा बनाता है मैं बेटी बनाता हूँ (मुनव्वर राना)
यहां हर शख्स हर पल हादिसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है
अजब ये ज़िन्दगी की कैद है दुनिया का हर इन्सॉं
रिहाई मॉंगता है और रिहा होने से डरता है (राजेश रेड्डी)
कहां मिलेगा मुझे इस जगह ठिकाना भी
बना के तोड़ दिया तुमने आशियाना भी
अकेले तुम ही नहीं थे मुखालिफ़त में मेरी
हमारी जान का दुश्मन रहा ज़माना भी (माधव कौशिक)
रोको उसे जो पेड़ हरा काट रहा है
समझा -ओ-नस्ल-ए-नौ का गला काट रहा है
मत घोलिए हवाओं में आलूदगी का ज़हर
सारा जहान इसकी सजा काट रहा है (अब्दुल रहमान मंसूर )
कितनी ही यादों के मंजर साथ में थे
दरिया, सहरा और समंदर साथ में थे
ज़हन में थे कुछ घर के नक्शे ख्वाबों के
हाथो में बुनियाद के पत्थर साथ में थे (सुरेंद्र चतुर्वेदी)
जब तक कोई रो-रो के दुहाई नहीं देता
अफ़सोस, कि लोगों को दिखाई नहीं देता
कोहराम तो कोहराम है, दिल का कि गली का
उठता है तो फिर कुछ भी सुनाई नहीं देता (इंदु श्रीवास्तव)
खुली शमशीर बातें कर रही थी
मेरे तक़दीर बातें कर रही थी
ख़मोशी से मैं बैठा सुन रहा था
तेरी तस्वीर बातें कर रही थी (आलोक यादव)
आईना बन के वक्त आया है
वक्त ने सब को आजमाया है
क्यूँ करें दूसरों से हम शिकवा
सबने अपनों से जख़्म खाया है (रेणु हुसैन )
और अंत में डॉ. हरिओम. भारतीय प्रशासनिक सेवा के इस अधिकारी और कवि कथाकार ग़ज़लगो के पास आसान लफ्जों में शायरी का वह रसायन है कि सुनते ही लगता है हम गीत-संगीत के गलियारों में खो गए हैं. मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूँ/सिकंदर हूँ मगर हारा हुआ हूँ- जैसी ग़ज़ल लिखने वाले हरिओम ने जीवन और समाज के अनेक अछूते बिन्दुओं को अपनी ग़ज़लों की अंतर्वस्तु बनाया है. शीन काफ़ निजाम जितने अच्छे शायर हैं उतने ही अच्छे आलोचक. शायरी के बड़े परिदृश्य पर क्या महत्वपूर्ण घटित हो रहा है, इस पर गहरी नजर रखने वाले शीन काफ़ निजाम में शायरी को जीवन की जरूरतों से जोड़ा है.
.
Tags: Hindi, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature, Poet
FIRST PUBLISHED : December 29, 2023, 12:16 IST
Source link