
जबलपुर, (जयलोक )। ओशो किताबों के लती थे। किताबों के लिए उन्हें कई-कई दिनों तक भूखा और बेघर होकर भी रहना पड़ा था। उन्होंने संसार की बहुत सी भाषाओं में लिखी और कही गई पुस्तकों को खोज-खोज कर कोई एक लाख से भी ज्यादा किताबों को पढ़ा था। पढ़ा भर नहीं था, बल्कि उनका गहरा अध्ययन और मनन किया था। उन पर अपने उद्बबोधन किए थे। भाष्य किए। किताबों के रहस्यों को उजागर किया। बाद में तो उन्होंने अपनी पढ़ी किताबों में से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगने वाली किताबों का स्मरण भी किया और दुनिया को बताया कि इन्हें जानो। इन्हें पढ़ो। इनके लिखने वाले लोग, सिर्फ लेखक भर नहीं थे, वे अनोखी आत्माएं थीं।
भगवान को नहीं, भगवत्ता को प्राप्त लोग थे वे। किताबों के बारे में उन्होंने अपने शिष्यों के बीच जो कहा, बाद में वह मुद्रित किया गया और उसका शीर्षक है, मेरी प्रिय पुस्तकें। इसी किताब में वे अपने जबलपुर वाले दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि ‘मैं एक गरीब विद्यार्थी था, पूरे दिन एक पत्रकार के रूप में काम करता था-जो तुम कर सकते हो उनमें यह निकृष्टतम काम है, किंतु उस समय यही मेरे लिए उपलब्ध था-और मैं इतना जरूरतमंद था कि मुझे रात के कॉलेज में जाना पड़ता था। तो मैं एक गरीब छात्र होने के कारण दिन भर काम करता था। लेकिन मैं दीवाना हूँ, अमीर या गरीब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। टी डी आस्पेंस्की की ‘टर्शियम आर्गानम’ मंहगी पुस्तक थी। भारत में, उन दिनों, मैं केवल सत्तर रुपया प्रति माह पाता था, और संयोग से इस पुस्तक का मूल्य भी सत्तर रुपये ही था-लेकिन मैंने इसे खरीद लिया। पुस्तक विक्रेता हैरान था, कि मंहगी होने के कारण जिसे किसी ने न खरीदा, उसे इस गरीब विद्यार्थी ने खरीद लिया। मैंने कहा, ‘अगर जीवन देकर भी मुझे यह खरीदना पड़े तो मैं इस पुस्तक को खरीद सकता हूँ। उस पूरे महीने मुझे करीब-करीब भूखा ही रहना पड़ा। किराया न दे पाने के कारण मुझे किराए के छोटे से कमरे से भी निकाल दिया गया। न भोजन, न कपड़े। सिर पर छपपर तक नहीं। मैंने उसे सडक़ के खंबे की रोशनी में पढ़ा। यह एक स्वीकारोक्ति है और उस पुस्तक को मैंने जिया है।’ किताबों के ऐसे नशेड़ची ने आगे चल कर अपने अनुभवों और चिंतन के रूप में जो कुछ कहा, वह सैकड़ों किताबों के तौर पर मौजूद है। ओशो का ज्नम 11 दिसम्बर, 1931 को हुआ था। उनका मूल नाम रजनीशचन्द्र मोहन जैन था। वे पढऩे के लिए जबलपुर आए थे। उन्होंने यहीं पर पढ़ाई की, आजीविका के लिए नवभारत में पत्रकारिता की, कॉलेजों में अध्यापन किया और यहीं पर भंवरताल उद्यान के मौलश्री वृक्ष के नीचे एक दिन बुद्धत्व भी प्राप्त किया। बचपन से ही वे विद्रोही स्वभाव वाले रहे हैं। तार्किक थे। वाद-विवादों में अपने मौलिक विचारों के कारण अलग से पहचाने जाते थे। विप्लवी स्वभाव ने उन्हें आजाद हिंद फौज से भी जोड़ दिया था। वयस्क होते-होते उन्होंने ईश्वरवाद और आस्थावाद की तरफ जाने वाली राह से किनारा कर लिया था। उन्होंने दर्शनशास्त्र विषय में सर्वोच्च अंकों के साथ अपनी डिग्री हासिल की थी। मेरे मामा डॉ विजयशंकर राय उनके सहपाठी और दोस्त थे। उन्होंने ‘मुकुल’ नाम वाली साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था। वे प्रधान संपादक थे और रजनीश तथा पं हरिकृष्ण त्रिपाठी सहयोगी संपादक हुआ करते थे। तीनों में गहरा आत्मीय दोस्ताना था। वे बहसजीवी लोग थे। बहसें करना उनका शगल था। उसके लिए खाना-पीना, सोना-जागना छोड़ सकते थे। मामा ने उन्हीं दिनों अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी, डिस्कवरी ऑफ फेथ (गॉड)। ओशो अपनी जीवन शैली और विचारों में इतने अनूठे थे, कि परंपरावादी समाज उनसे चौंकने लगा था। उन्हें ग्रहण करने में उसे परेशानी होने लगी थी। पर यह तो हर काल में हुआ है, विचारों के अनूठेपन को सहजता के साथ कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। सुकरात, ईशू और महात्मा गाँधी को उसकी कीमत अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी। उनकी देहों को मार दिया गया, पर उनके विचारों को मार पाना निरंतर असंभव होता चला गया। ओशो अपने अनूछेपन के कारण ही जीवन भर विवादास्पद बने रहे। वे अपनी तरह के रहस्यदर्शी थे, जिन्हें जितना नकार मिला, उससे ज्यादा स्वीकार मिला। उनके अनुयायियों की दुनिया भर में प्रभावकारी तादाद है। वे ऐसे वक्ता और प्रवचनकर्ता के तौर पर जाने जाते रहे जिनके बोलने से सम्मोहन जागता था। मंत्र-मुग्ध होना, अपने मुहावरेपन से निकलकर उन जैसे वक्ताओं के कारण ही साक्षात घटित हो सका। उनमें उच्चारण दोष भी था, जैसे कि महात्मा गाँधी में भी था, लेकिन उनके कहन में इतनी सजीवता रही है, जो बाहर के सभी उपकरणों को फलांगकर सीधे आपके हृदय में जगह बना लेती थी। उनसे बचने का एक मात्र तरीका यही था, कि उन्हें न सुना जाए। सुने कि उनके हुए। मौलिकता सदैव अपने चंगुल में ले लेती है। जो मौलिकता से भयभीत रहते हैं और बनी बनाई लीक के अनुगामी होने का आनंद पाते हैं, वे नए विचारों से बिचकते हैं। छरकते हैं। लाल कपड़ा देखकर भडक़ने वाले सांड की तरह फूत्कार करते हैं। ओशों ने उन सबका सामना किया। उन सबकी फूत्कारों को निस्तेज बनाया और अपनी राह में बहुत आगे निकलते चले गए। उनके मुरीदों की अपनी दुनिया है।
वे उन्हें न समझकर भी उनके आशिक हो सकते हैं। आशिकी का यही चलन है। पर उन्हें जानने-समझने की कोशिश ही न की जाए, यह एक तरह का कठमुल्लापन होगा। उन्हें अपने तर्कों से काटो। उन्हें अपने चिंतन से पराजित करो। अपने विचारों की मौलिकता की पताका फहराओ। ऐसा करने में कोई बाधा नहीं है। ऐसा करने से एक और चिंतक दुनिया को मिल सकता है। वे संत या महात्मा नहीं थे। प्रज्ञावान थे। अक्सर अपने को पागल भी संबोधित करते थे। पागल, उसके सामान्य अर्थों में नहीं, विशिष्ट अर्थों में। जिसने किसी के लिए अपनी दुनिया को भुला दिया हो। उन्होंने परम तत्व को जानने और उसके बारे में संसार को जनाने के लिए यही दीवानापन ग्रहण कर लिया था। दीवानगी कोई आसान रूपांतरण नहीं है, संसार की सारी भौतिक संपदा को खोकर ही उसे पाया जा सकता है। ओशो से आप सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं पर उन्हें खारिज नहीं कर सकते। जबलपुर की धरती ने उन्हें बुद्धत्व प्रदान किया, इसलिए वे जबलपुर के कर्जदार हैं। अपनी मेधा, चिंतन और विचारों से उन्होंने दुनिया को चमत्कृत किया, इसलिए जबलपुर उनका आभारी है। वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद अपने महान लोगों पर गर्व करना और उनका आभार मानना, हमारी संस्कृति है। लंदन के ‘संडे टाइम्स’ ने बीसवीं सदी के एक हजार निर्माताओं में से एक बताया है। अमरीकी लेखक टॉम राबिन्स ने लिखा है कि ओशो, क्राइस्ट के बाद सर्वाधिक खतरनाक व्यक्ति हैं। भारत के ‘संडे तिड- डे’ ने ओशों को गाँधी, नेहरु और बुद्ध के साथ उन दा लोगों में गिना है, जिन्होंने भारत का भाग्य बदल दिया। ओशो की मृत्यु 19 जनवरी 1990 को हुई। उनकी समाधि पर इस तरह का स्मृतिलेख अंकित किया गया है, वे ’न जन्मे न मरे-सिर्फ 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस ग्रह पृथ्वी का दौरा किया’।

हाईवे पर हेलिकॉप्टर की इमरजेंसी लैंडिंग केदारनाथ धाम के लिए भरी थी उड़ान

Author: Jai Lok
